क्यों हिमालय बने हैवान? उत्तराखंड से लौटकर...

केदारनाथ- वो जगह जहां हर आस्थावान, मूर्तिपूजक हिंदू अपनी जिंदगी में एक बार जरूर जाता है या जाने की ख्वाहिश रखता है। उत्तर भारत के गांवों में जब भी कोई बद्रीनाथ-केदारनाथ की यात्रा पर निकलता था तो लोग उसे बडा नसीबवाला मानते थे और पूरा गांव आकर उसे बधाईयां देता था। इस यात्रा से थक कर लौटने वाले का गांव के बाकी लोग पैर दबाते थे, ताकि तीर्थ का थोडा पुण्य उन्हें भी मिले। मेरे माता-पिता पिछले साल ही केदारनाथ आये थे और चाहते थे कि मैं भी एक बार यहां जरूर आऊं।  उनकी बात रखने के लिये मैने सोचा भी था कि कभी 4-6 दिन की छुट्टी लेकर मैं केदारनाथ हो आऊंगा, लेकिन उस ओर ऐसे हालातों में जाना होगा ऐसा अंदाजा मुझे कतई नहीं था...और वहां जाने वाले किसी को भी नहीं था। हो भी कैसे सकता था? यहां मरने वाले या जिंदा बचकर निकलने वाले लोग तो केदारनाथ आस्था के आगोश में गये थे, मन्नतें मांगने गये थे, अपने और अपने परिवार के सुख, संपन्नता और सुरक्षा की मुरादों के साथ गये थे। किसी को क्या पता था कि यहां कुछ ऐसा होने वाला है जो उनसे उनका सबकुछ छीन लेगा। बतौर पत्रकार बीते 15 सालों में मैने कई कुदरती आपदाएं कवर की हैं, चाहे वो दिसंबर 2004 में भारत के पूर्वी तट की ओर सुनामी हो, जुलाई 2005 में मुंबई की कयामती बरसात या फिर मार्च 2011 में जापान में आई सुनामी जिसने बडे न्युकिलयर हादसे का भी खतरा पैदा कर दिया था। उन सभी कुदरती आपदाओं में भी जानोमाल की बडी तबाही हुई थी लेकिन उन सबमें मुझे उत्तराखंड का कवरेज सबसे अलग और विचलित करने वाला लगा। इस हकीकत ने मुझे सबसे ज्यादा चौंकाया कि उत्तराखंड की सरकार को इस बात की जानकारी काफी पहले से थी कि यहां भारी तबाही मच सकती है और केदारनाथ एक टाईम बम पर बैठा है, लेकिन इसके बावजूद सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही और वो हो गया जो नहीं होना चाहिये था। आप पूछेंगे कि बादल फटना तो एक कुदरती हादसा है, ये कोई आतंकी हमला तो था नहीं कि खुफिया एजेंसियों की टिप मिलने पर उसे रोक लिया जाता, फिर सरकार कैसे इसे रोक पाती? सवाल वाजिब है और इसका जवाब छुपा है उन इंसानी गतिविधियों में जो बीते 6 दशकों से केदारनाथ की इन वादियों में हो रहीं थीं।

केदारनाथ के करीब ही गुप्तकाशी नाम का एक कस्बा है जहां के कुछ पढे-लिखे नौजवान होली हिमालय नाम का एक एनजीओ चलाते हैं। ये संगठन इलाके के पर्यावरण को बचाने के लिये संघर्ष कर रहा है। कवरेज के दौरान संगठन के एक सदस्य रघुवीर अस्वाल से मेरी मुलाकात हुई। अस्वाल के मुताबिक 1942 के बाद से यहां के पहाडों की बर्बादी शुरू हुई। 1942 तक पगडंडियों के जरिये ही मैदानी इलाकों से केदारनाथ तक के सफर का एक बडा हिस्सा पूरा करना पडता था, लेकिन जैसे जैसे सडकें बनने लगीं, केदारनाथ तक पहुंचना आसान होता गया और उसी के साथ शुरू हो गया पहाडों का शोषण। सडक के किनारे दुकाने, ढाबे, बडे बडे मकान और बहुमंजिला होटल बनने लगे। मंदाकिनी नदी के तटों पर अतिक्रमण करके दुकान और मकान बनाये जाने लगे। नदी संकरी होने लगी। दिल्ली, लखनऊ और चंडीगढ समेत उत्तरभारत के रईस लोगों को इस इलाके में निवेश का अच्छा मौका नजर आया और इलाके के पर्यावरण की परवाह किये बिना उन्होने इसके कांक्रीटीकरण में बडी भूमिका अदा की। भले ही केदारनाथ एक तीर्थस्थल हो लेकिन यहां के सरकारी मुलाजिमों का चरित्र भी भारत के बाकी हिस्से के सरकारी मुलाजिमों जैसा ही था। इनकी जेबें गर्म होते ही अवैध निर्माण के लिये नियम, कानून कभी रोडा नहीं बनते। इलाके में बेरोजगारी का भरपूर फायदा उठाया गया। लेबर सस्ते में उपलब्ध था। पहाडी गांवों में खेती-पाती का काम औरतें ही संभालतीं है, जबकि घर के मर्द गांव से दूर जाकर नौकरी करते हैं। ज्यादातर लोग इन्ही होटलों और ढाबों में नौकरी करने लगे। ब्राहमण घरों के लोग केदारनाथ आये श्रद्धालुओं के लिये पूजा पाठ करवाकर कमाते। मैदानी इलाकों से बद्रीनाथ-केदारनाथ के बीच एक तरह से स्वतंत्र अर्थव्यवस्था खडी हो गई थी, जिसकी नींव यहां के पर्यावरण को कुचल कर रखी गई थी।

गुप्तकाशी में ही एक स्कूल के प्रिंसिपल के.एस.नेगी ने मुझे एक क्षेत्रीय अखबार की कतरन दिखाई जिसका शीर्षक था- अब केदारनाथ खतरे में। बम की तरह फटेगा ग्लैशियर। खबर छपने की तारीख थी 2 अगस्त 2004। इस खबर में हिम विशेषज्ञों के हवाले से बताया गया था कि किस तरह से केदारनाथ में एक बडा हादसा होने वाला है। मंदिर के ठीक पीछे 6 किलोमीटर लंबा चौराबाई ग्लैशियर फट कर पूरे इलाके को डुबो सकता है। चौंकाने वाली बात थी कि इस पूरी खबर में केदारनाथ में जिस तरह की आशंकित तबाही का विवरण दिया गया था, 10 साल बाद यहां ठीक वैसा ही हुआ। बीते दस सालों में इस जैसी तमाम अखबारी रिपोर्ट्स छपीं, पर्यावरण के लिये लड रहे संगठनों ने आंदोलन किया, अदालतों के दरवाजे खटखटाये गये...लेकिन पहाडों को बचाने के नाम पर सरकार ने खानापूर्ति के अलावा कुछ नहीं किया। साल 2004 में Uttarakhand Environment Protection & Pollution Control Board ने राज्य में पर्यानरण की हालत पर एक रिपोर्ट तैयार की थी और पर्यावरण बचाने के लिये गाईडलाईंस सुझाईं थीं, लेकिन ये रिपोर्ट तबसे धूल खा रही है। पर्यावरण को लेकर सरकार का रवैया कभी संजीदा नहीं रहा।
कुदरत के साथ खिलवाड का क्या नतीजा होता है उसकी सबसे खतरनाक तस्वीर नजर आई गुप्तकाशी से केदारनाथ जाने वाले रास्ते के बीच सोनप्रयाग नाम की इस जगह पर। 16 जून को मची तबाही में बर्बाद हुए  होटलो, दुकानों और मकानों को देखकर उनके मालिकों के प्रति सहानुभूति तो पैदा हुई लेकिन हकीकत ये है कि उन्होने खुद ही मुसीबत मोल ली। इन्होने अपने होटल, दुकानें वगैरह मंदाकिनी नदी से ठीक सटकर बनाईं थीं और जब सैलाब आया तो उसने सबकुछ तबाह कर दिया। नदियों के बहाव के साथ छेडखानी का क्या नतीजा होता है, ये मैं 26 जुलाई 2005 को मुंबई में देख चुका हूं। उस दिन हुई प्रलयंकारी बारिश ने शहर के बीचोंबीच से गुजर कर अरब सागर में समाने वाली मीठी नदी (मीठी उस नदी का नाम है, उसके पानी का स्वाद नहीं) को बेकाबू कर दिया था। शहर के उपनगर पवई से निकलने वाली इस नदी के इर्द गिर्द हुए भारी अतिक्रमण ने इसके बहाव के रास्ते को बेहद संकरा कर दिया था। इसके अलावा पू्र्वी और पश्चिमी उपनगरों के कई गंदे नाले भी इसी नदी में आकर खलते थे और उनकी गंदगी ने मीठी नदी के सतह को उठा दिया था यानी कि इसकी गहराई को कम करके पानी के बहाव को नियंत्रित करने की क्षमता कमजोर कर दी थी। नतीजा ये हुआ कि जब मुंबई में बादल फटा तो इस नदी ने शहर के उपनगरों में भयंकर तबाही मचाई। साढे 500 से ज्यादा लोग मुंबई और इर्द गिर्द के शहरों में मारे गये, सैकडों वाहन बह गये, कई झुग्गी बस्तियां तबाह हो गईं और इस बाढ के बाद पैदा हुई बीमारियों ने भी करीब 400 लोगों की जान ले ली।

केदारनाथ के पहाड काफी नाजुक हैं। इस इलाके में कोई भी गैर कुदरती हरकत काफी बडा असर डालती है। पहाडों में जिस गतिविधी को इंसान डेवेलपमेंट कहता है वो कुदरत की नजर में डिस्ट्रक्शन है...तबाही है...संहार है...। नेगी ने मुझे बताया कि केदारनाथ की वादियों में कई छोटे-बडे पावर प्रोजेक्टस चल रहे हैं, जिनके निर्माणकाल के दौरान 2 तरह से इलाके के पहाडों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। एक तो यहां पहाडों को चीरने के लिये (उनमें टनल बनाने के लिये) ब्लास्ट किये जाते हैं और फिर उनमें ड्रिलिंग की जाती है। इससे पहाडों की अंदरूनी परतें (प्लेट्स) हिल जातीं हैं और पहाड अपने वास्तविक जगह से खिसकने लगते हैं। नेगी के मुताबिक इस इलाके में धमाकों की गूंज आम हो गई है। दूसरा कारण है पावर प्रोजक्टस के लिये पेडों का कटना। पावर प्रोजक्टस को जगह देने के लिये हजारों की तादाद में पेडों की बलि चढाई जा रही है। इस वजह से इलाके की हरियाली कम हो रही है। बारिश के वक्त पेड एक बफऱ जोन पैदा करते हैं जो कि पहाडों के ऊपर से आ रहे पानी और उनके साथ लुढकते आ रहे बडे बडे पत्थरों को रोकने का काम करते हैं, लेकिन जब पेड घटते हैं तो यही पानी और पत्थर सीधे आबादी वाले इलाकों में घुसकर तबाही मचाता है।

केदारनाथ के हादसे के बाद अब एक बार फिर बहस शुरू हो गई है बांधों पर। इस मसले पर बहस के दौरान बांध समर्थक मिसाल देते हैं भारत के सबसे ऊंचाई पर बनाये गये बांध टिहरी डैम की। गुप्तकाशी से लौटते वक्त मैने इस मसले पर विरोधाभासी ख्याल रखने वाले 2 शख्सियतों से मुलाकात की। पर्यावरणविद अवधेश कौशल का मानना है कि अगर टिहरी डैम न होता तो 16 जून को भागीरथी नदी का पानी हरिद्वार और ऋषीकेश जैसे निचले इलाके के शहरों को ले डूबता। टिहरी डैम ने ही उस पानी को रोका। कौशल के इस तर्क पर जब मैने चिपको आंदोलन के जनक और बांध विरोधी सुंदरलाल बहुगुणा से सवाल किया तो उनका कहना था कि- टिहरी डैम की वजह से हरिद्वार और ऋषीकेश बचे ये एक दुष्प्रचार है। बांध पानी को रोकते हैं। टिहरी डैम न होता तो पानी कुदरती रूप से अपनी राह निकल जाता। पहाडी इलाकों में बनाये गये बांध वहां के संवेदनशील इको सिस्टम को नुकसान पहुंचाते हैं, पहाडों को कमजोर करते हैं, पेडों को नष्ट करते हैं, नदियों का कुदरती बहाव रोकते हैं, जीव जंतुओं की गतिविधियां प्रभावित करते हैं और स्थानीय आबादी को अपने मूल ठिकाने से पलायन करने पर मजबूर करते हैं।

बहुगुणा के तर्कों पर अवधेश कौशल का जवाब है कि बांध आज वक्त का तकाजा बन चुके हैं। देश के दूरदराज के इलाकों में बिजली पहुंचाने के लिये बाकी दूसरे माध्यमों के मुकाबले जल विदयुत परियोजनाएं ही सबसे ज्यादा कारगर हैं, मसलन, सौर ऊर्जा से बिजली निर्माण उन इलाकों में भरोसेमंद नहीं है जहां साल के ज्यादातर वक्त बादल छाये रहते हैं, कोयले से बिजली पैदा करने से पर्यावरण को और भी ज्यादा खतरा है क्योंकि उसके लिये लकडियों का इंतजाम करना पडता है, परमाणु संयंत्रों के अपने अलग खतरे हैं जैसा कि साल 2011 में जापान के फुकुशिमा में नजर आया, पवन से बिजली पैदा करना महंगा भी है और हर जगह पर मुमकिन भी नहीं। बहरहाल बांध समर्थक और विरोधियों की लडाई और भी बडी और गहराई है और वो इस ब्लॉग का विषय भी नहीं।

होली हिमालय संगठन ने हाल ही में एक अध्ययन करवाया जिसमें कि पता चला कि केदार घाटी में तीर्थयात्रा के मौसम के दौरान प्रतिदिन 10 टन प्लास्टिक कचरा नदियों में जाता था। इतनी बडी तादाद में प्लास्टिक वेस्ट न केवल कस्बों से निकलने वाले नालों को जाम कर देता है बल्कि नदी के बहाल में भी अडचन पैदा करता है। ज्यादातर प्लास्टिक वेस्ट यहां उन तीर्थयात्रियों के जरिये आता था जो अपने साथ प्लास्टिक के पैकेट में खाने पीने की सामग्री लाते थे। 20-30 रूपये में मिलने वाले डिस्पोसेबल रेनकोट का भी उनमें शुमार है।

यहां के स्थानीय पर्यावरणविद इलाके के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में एक अहम भूमिका हेलिकॉप्टर्स की भी मानते हैं।1991 के खाडी युद्ध में कुवैत में फंसे भारतियों को निकालने के बाद भारत ने अपना दूसरा सबसे बडा हवाई रेस्क्यू ऑपरेशन किया उत्तराखंड में। ये मुमकिन हो पाया हेलिकॉप्टर्स की वजह से...लेकिन हेलिकॉप्टर नाम की ये उडती मशीन जो हादसे के वक्त हजारों लोगों के लिये संकटमोचक बनी, पर्यावरणविदों के मुताबिक उसी ने यहां का ईको सिस्टम तबाह करने में भी भूमिका निभाई।

साल 2002 में केदारनाथ की इन वादियों में पवनहंस ने पहली हेलिकॉप्टर सेवा शुरू की। देखते देखते अब यहां 10 निजी हेलिकॉप्टर कंपनिया चलने लग गईं हैं जो भक्तों को केदारनाथ मंदिर तक लाने ले जाने का काम करतीं हैं। केदारनाथ में मची तबाही से पहले यहां दसों कंपनियों के हेलिकॉप्टर एक घंटे में कम से कम 4 चक्कर लगाते थे।
एक हेलिकॉप्टर के उडान भरने या लैंडिंग करते वक्त आवाज का स्तर 110 डेसिबल से लेकर 130 डेसिबल के बीच होता है। अगर लगातार इस हद तक आपको आवाज सुननी पडे तो जाहिर है कान पर उसका बुरा पडता है।
मैने रत्नादेवी नाम की एक स्थानीय महिला से बात की जो कि गुप्तकाशी के पास खेती करतीं हैं। रत्नादेवी उन तमाम लोगों में से एक है जिनकी वादी में लगातार उडने वाले हेलिकाप्टरों से कानों की सुनने की ताकत को काफी नुकसान पहुंचा है। उनके मुताबिक जब हेलिकॉप्टर करीब से उडते हैं तो खेती के दौरान उनके बैल घबरा जाते हैं और यहां वहां भागने लगते हैं। उनके एक बैल की टांग इसी वजह से टूट गई।
रघुवीर अस्वाल के मुताबिक हेलिकॉप्टरों की लागातर आवाजाही की वजह से यहां के जंगली जानवर भी दूसरे इलाकों में भाग खडे हुए हैं। जंगलों से पहाडी तेंदुओं, हिरणों समेत दूसरे जंगली जानवरों की तादाद काफी कम हो गई है।

दूसरी ओर केदारनाथ में हेलिकॉप्टर सेवाएं चलाने वालों में से एक आलोक बगवाडी का तर्क है कि हेलिकॉप्टर इस इलाके की जरूरत बन चुके हैं क्योंकि केदारनाथ तक कोई सडक नहीं है इसलिये बुजुर्ग और अपाहिज तीर्थयात्रियों के लिये हेलिकॉप्टर एक वरदान है।

उत्तराखंड के पहाडों में जो कुछ भी हुआ है उसके नतीजे एक लंबे वक्त तक यहां पर नजर आयेंगे। कवरेज के दौरान मैं गुप्तकाशी से 8 किलोमीटर दूर ल्वाणी नाम के एक गांव में पहुंचा। इस गांव की लगभग पूरी युवा पीढी ही खत्म हो गई है। गांव के ब्राहम्ण नौजवान केदारनाथ में पंडों का काम करते थे। उनमें से 14 लोग 16 जून की त्रासदी में खत्म हो गये।मरने वाले सभी लोगों की उम्र 15 से 40 साल के बीच की थी। 2 लोग ऐसे थे जिनकी पिछले साल ही शादी हुई थी और जो जल्द ही बाप बनने वाले थे। ल्वाणी की तरह ही ऐसे तमाम गांव हैं जहां घर की रोजीरोटी चलाने वाले कुदरती कहर का शिकार बने। फिलहाल तो जैसे तैसे सरकार और गैर सरकारी संगठनों की तरफ से दाना-पीनी मिल रहा है, लेकिन इनका असली संघर्ष शुरू होगा अबसे 3-4 महीने बाद जब लोगों की सहानुभूति मंद होने लगेगी, जब मीडिया पर करीब आ रहे लोकसभा और दूसरे राज्यों के चुनाव हावी हो जायेंगे, जब सरकार पर अपनी संवेदनहीनता की पोल खुलने का डर कम हो जायेगा और जब ट्रक भर भर कर राहत सामग्री भेज रहीं सियासी पार्टियां और गैर सरकारी संगठन इस त्रासदी को भूल जायेंगी...और भगवान न करे इस बीच कोई दूसरी त्रासदी हो जाये। आसाम में बाढ के हालात लगातार बिगडते जा रहे हैं।


उत्तराखंड के पीडित इलाकों के नवनिर्माण में कई साल लग जायेंगे। ये नवनिर्माण होगा किस तरह का ? जैसा कि इस लेख में पहले बताया गया है कि केदारनाथ मंदिर को केंद्र में रखकर इस इलाके की एक स्वतंत्र अर्थव्यवस्था खडी हो गई है, अगर वही सबकुछ दोबारा होता है तो उसमें भूमिका निभाने वाले किसी नरसंहार के आरोपी से कम नहीं होंगे फिर चाहे वो सरकारी मुलाजिम हों, स्थानीय लोग हों या फिर पहाडों में investment oppurtunities देख रहे दिल्ली, मुंबई के धन्ना सेठ हों।

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