नागरिक बनो, भक्त नहीं!

कर्नाटक नतीजे आने के बाद कई लोग सोशल मीडिया पर मेरे पोस्ट को पढकर ये अनुमान लगा रहे हैं कि शायद मैं कांग्रेसी हूं। अनुमान गलत है। तो क्या मैं भाजपाई हूं?क्या मैं भक्त हूं? नहीं जी। फिर क्या मैं वामपंथी हूं? बिलकुल नहीं। ...तो फिर मैं कैसा शख्स हूं जिसकी कोई विचारधारा ही नहीं है?

मेरी सोच ऐसे लोगों के मन में उठ रहे तमाम सवालों से अलग है। मेरा परिचय भारत के एक नागरिक का है। मेरी नजर में जैसे ही आप किसी राजनीतिक पार्टी के फुलटाईम समर्थक/कार्यकर्ता बनते हैं या फिर किसी राजनेता के भक्त बन जाते हैं तो आप अपने आपको को उन अधिकारों से वंचित कर लेते हैं जो एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने के नाते आपको मिले हैं।

अगर आप किसी राजनेता के भक्त हैं तो आपको उसकी हर बात पर वाह वाह करनी पडेगी। आपको उसके हर उस फैसले का भी सार्वजनिक तौर पर समर्थन करना पडेगा जिसे निजी तौर पर आप गलत मानते होंगे। कई बार उसके फैसले ऐसे होते सकते हैं जो सीधे आपको और आपके घर वालों को प्रभावित करते हों, परेशान करते हों।...लेकिन आप तो भक्त ठहरे। आपको तो उसका भी समर्थन करना ही पडेगा। कई बार आप जिसके भक्त हैं उसके फैसले तर्कसंगत नहीं होंगे, न्यायसम्मत नहीं होंगे, पाखंड झलकाते होंगे, लेकिन आपको तो उनका समर्थन करना ही पडेगा। आप भक्त जो ठहरे।

अगर मैं अपनी बात करूं तो ये कहूंगा कि मैं अपने नागरिक होने की स्वतंत्रता का पूरा इस्तेमाल करता हूं। जब जिस राजनेता की बात ठीक नहीं लगती, तब उसके खिलाफ लिखता-बोलता हूं। वो किसी भी पार्टी का हो सकता है। बीते दस सालों में मैने अलग अलग चुनावों में अलग अलग पार्टियों को वोट दिया है। किसी में बीजेपी को, किसी में कांग्रेस को, किसी में शिव सेना को। विधान सभा चुनाव में कोई और, लोक सभा चुनाव में कोई और, बीएमसी चुनाव में कोई और। वोट देते वक्त मैं उम्मीदवार के व्यकित्तव को महत्व देता हूं। उसके भूतकाल में किये गये काम और उसकी काबिलियत को तरजीह देता हूं। उसकी पार्टी मेरे लिये मायने नहीं रखती...और न ही उसकी पार्टी की विचारधारा। हमेशा देखा गया है कि राजनीतिक पार्टियां विचारधारा की बात सिर्फ चुनाव नतीजे आने तक करतीं हैं। उसके बाद सरकार बनाने की जोडतोड में विचारधारा हवा हो जाती है।याद है न जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाते वक्त 2015 में बीजेपी ने अलगाववादी और आतंकवादियों के प्रति नरम रवैया रखने वाली पीडीपी से हाथ मिला लिया था। नीतीश कुमार कभी बीजेपी के साथ रहे तो कभी लालू यादव की पार्टी के साथ। अपने महाराष्ट्र में ही हिंदुत्ववाद की राजनीति करने वाली शिव सेना ने खुद को धर्मनिर्पेक्ष बताने वाली कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली। उस वक्त शिव सेना ने इस बात की परवाह नहीं की कि जनता ने उसे हिंदुत्ववादी पार्टी बीजेपी से गठजोड करने पर जनमत दिया था। कांग्रेस-एनसीपी भी ये भूल गयीं कि लोगों ने सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ होने की वजह से उन्हें वोट दिया है। विचारधारा का सम्मान सिर्फ जनता ही करे? सत्ता की मलाई खाने के लिये राजनीतिक पार्टियां जो मन में आये करें?

हो सकता है कि इस बीच मेरे सोशल मीडिया पोस्ट बीजेपी के खिलाफ नजर आते हों, लेकिन इसके पीछे कारण ये है कि केंद्र और मेरे राज्य महाराष्ट्र में दोनो जगह बीजेपी की सरकार हो। एक नागरिक के तौर पर सत्ताधारी पार्टी से सवाल पूछना और उसकी खामियों को उजागर करना मेरा अधिकार है। जब केंद्र और राज्य में कांग्रेस थी तब मैं उसके साथ भी यही करता था।

मैं आस्थावान हिंदू जरूर हूं लेकिन हिंदुत्ववादी नहीं। मैं रोज घर में पूजा करता हूं, सप्ताह में एक बार मंदिर जाता हूं, हाथ में रक्षा सूत्र पहनता हूं, तीर्थस्थलों पर जाता हूं, रामलीला देखता हूं, घर पर गणपति बिठाता हूं लेकिन मेरे हिंदुत्व की व्याख्या में मुसलिम या किसी और धर्म के अनुयायियों का विरोध नहीं हैं। धर्म मेरे लिये निजी मामला है और मैं अपने धर्म में राजनीति की मिलावट नहीं होने देता। अगर कोई धर्म के नाम पर मुझसे वोट मांगेगा तो मैं उसको कहूंगा – चल रास्ता नाप!

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