मुंबई में हर हफ्ते होता है "भूतों" का जमावडा।
मुंबई में हर गुरूवार एक जगह होता है ऐसे लोगों का जमावडा जिनके बारे में नाते रिश्तेदार मानते हैं कि उन्हें भूत-प्रेत ने जकड रखा है। ये लोग वहां नाचते हैं गाते हैं, ऊट पटांग हरकतें करते हैं और अपने आप से बातें करते हैं।मैने खुफिया कैमरे से जब इसकी पडताल की तो पाया कि मुंबई जैसे शहर में भी कई पढे लिखे लोग अंधविश्वास में यकीन करते हैं और अपने बीमार नाते रिश्तेदारों का इलाज कराने तंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं। डेढ करोड की आबादी वाला महानगर मुंबई देश के सबसे आधुनिक शहरों में से एक गिना जाता है...लेकिन अपनी इस पडताल में मैने जो तस्वीर देखी वो मुंबई की इस इमेज से मेल नहीं खाती और आपको सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या वाकई में हम 21 वीं सदी में रहते हैं।
ये जगह है मुंबई के हार्बर लाईन रेल स्टेशन रे रोड के करीब दातार दरगाह।यहां हर गुरूवार की शाम सैकडों लोग जमा होते हैं। दरगाह के बाहर का माहौल बडा ही अजीब और डरावना होता है। कोई औरत लगातार 2 घंटे से झूम रही होती है। उसे लग रहा होता है कि उसके शरीर में किसी खतरनाक चुडैल की आत्मा घुस गई है। खुद को राक्षस समझ रहा एक आदमी बडी देर से इसी तरह अपना सिर हिला रहा होता है।कई महिलाएं चिल्ला चिल्लाकर अपने बाल घुमा रही होतीं है। उन्हें भी लग रहा होता है कि इनमें किसी शैतान की आत्मा समा गई है। दरगाह के बाहर मौजूद कई शख्स इसी तरह की ऊट पटांग हरकतें करते नजर आते हैं। उन्हें उनके रिश्तेदार यहां लेकर आते हैं। तांत्रिकों की जुबान में जब कोई शख्स ऐसी हरकत करे तो इसका मतलब है कि उसे हाजिरी आई है। हाजिरी आने का मतलब है कि उस शख्स के जिस्म में कोई सैतानी रूह हाजिर हुई है।इस जगह के बारे में ये प्रचारित हुआ है कि जो भी 5 या 7 गुरूवार इस दरगाह पर चक्कर लगा ले तो भूत, प्रेत वगैरह उसे तंग करना बंद कर देते हैं। यहां मुंबई के अलग अलग इलाकों से तो लोग आते ही हैं आसपास के शहरों से भी लोग यहां पहुंचते हैं। शाम को दरगाह पर सलामी के वक्त तो यहां पैर रखने की जगह भी मुश्किल से मिल पाती है और जब नगाडे की आवाज के साथ सलामी दी जाती है तो उस वक्त ऐसा लगता है मानो सारे भूत प्रेत एक साथ नाच उठे हों। इस तरह के अड्डे भारत के कई गाम्रीण इलाकों में भी हैं लेकिन मुंबई जैसे शहर में इसका होना मुझे अजीब लगा।
मुसीबत का मारा इंसान अपनी समस्या का हल पाने के लिये हर तरीका अपनाता है। जब दवा से काम नहीं चलता तो दुआ का सहारा लेता है..लेकिन कई ऐसे भी होते हैं जो इलाज के लिये दवा के बजाय सीधे तंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं।यहां आने वाले ज्यादातर मरीजों के रिश्तेदार ये मानते ही नहीं कि मरीज को कोई मानसिक बीमारी है। उनकी नजर में ये रूहानी ताकतों की चपेट में हैं और इनसे निपटने का तरीका तंत्र-मंत्र ही है न कि मेडिकल साईंस। यहां कई लोग ऐसे हैं जिनका दावा है कि बिना कोई बाहरी इलाज किये सिर्फ यहां आने से ही उनकी हालत में सुधार हुआ है। हमने वहां बात की एक शख्स से जिसका नाम है दशरथ गौतम। दशरथ ने बारहवीं तक पढाई की है और एक चश्मे के स्टोर में काम करता है। दिखने में वो एक आम सेहतमंद नौजवान जैसा ही है...लेकिन कई बार दशरथ अपना होश-ओ हवास खो देता है और उट पटांग हरकतें करने लगता है। तेजी से अपना सिर हिलाने लगता है..जोर जोर से चिल्लाने लगता है...बेहोश हो जाता है। दशरथ के घरवालों का मानना था कि उसे कोई रूहानी ताकत तंग कर रही है। उसके शिक्षक फूफा किसी की सलाह पर उसे दातार दरगाह ले आये। यहां 4 हफ्ते आने के बाद दशरथ का कहना है कि वहां जाने के बाद उसकी तबियत में सुधार हुआ है।
अपने मोबाईल कैमरे में दरगाह के बाहर की तस्वीरों को शूट करके मैं मनोचिकित्सक डॉ. यूसुफ माचिसवाला के पास पहुंचा। उन्हें तस्वीरें दिखाकर मैने पूछा कि लोग ऐसी हरकतें क्यों कर रहे हैं और मनोविज्ञान की नजर में ये सब क्या है। उनका कहना था कि मनोवैज्ञालिक जुबान में इस बीमारी को पजेशन सिंड्रम (POSSESSION SYNDROME) कहते हैं।कई बार लोग बचपन से ही भूत प्रेत वगैरह की कहानियां सुनते हैं और जब किन्ही कारणों से दिमागी सिस्टम अस्त व्यस्त हो जाता है तो लोगों को ये लगता है कि वे किसी आत्मा की गिरफ्त में हैं। ऐसे में कई लोग लोग मनोचिकित्सक के पास जाते हैं तो कई दरगाहों पर मत्था टेकने। डॉ माचिसवाला के मुताबिक अगर दरगाह पर जाने के बाद किसी की तबियत ठीक हो रही है तो इसके पीछे भी मनोवैज्ञानिक कारण है। वे इसे वैकल्पिक इलाज (ALTERNATE THERAPY) मानते हैं। लोगों से सुन सुन कर पीडित व्यकित के दिमाग में ऐसी आस्था जगह बना लेती है कि दरगाह पर जाने से वो ठीक हो जायेगा। उसका यही विश्वास धीरे धीरे उसे बीमारी से पीछा छुडाती है। ऐसी बीमारी का जन्म भी दिमाग में गहरे बैठे खयालों से होता है और उनका निदान भी दिमाग में खयालों से ही हो जाता है।
खैर मनोविज्ञान चाहे जो भी कहता है लेकिन इस रिपोर्ट पर काम करने के बाद मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि भले ही हम 21 वीं सदी में पहुंच गये हों लेकिन आज भी आस्था और अंधविश्वास के बीच की लकीर बहुत धुंधली है।
ये जगह है मुंबई के हार्बर लाईन रेल स्टेशन रे रोड के करीब दातार दरगाह।यहां हर गुरूवार की शाम सैकडों लोग जमा होते हैं। दरगाह के बाहर का माहौल बडा ही अजीब और डरावना होता है। कोई औरत लगातार 2 घंटे से झूम रही होती है। उसे लग रहा होता है कि उसके शरीर में किसी खतरनाक चुडैल की आत्मा घुस गई है। खुद को राक्षस समझ रहा एक आदमी बडी देर से इसी तरह अपना सिर हिला रहा होता है।कई महिलाएं चिल्ला चिल्लाकर अपने बाल घुमा रही होतीं है। उन्हें भी लग रहा होता है कि इनमें किसी शैतान की आत्मा समा गई है। दरगाह के बाहर मौजूद कई शख्स इसी तरह की ऊट पटांग हरकतें करते नजर आते हैं। उन्हें उनके रिश्तेदार यहां लेकर आते हैं। तांत्रिकों की जुबान में जब कोई शख्स ऐसी हरकत करे तो इसका मतलब है कि उसे हाजिरी आई है। हाजिरी आने का मतलब है कि उस शख्स के जिस्म में कोई सैतानी रूह हाजिर हुई है।इस जगह के बारे में ये प्रचारित हुआ है कि जो भी 5 या 7 गुरूवार इस दरगाह पर चक्कर लगा ले तो भूत, प्रेत वगैरह उसे तंग करना बंद कर देते हैं। यहां मुंबई के अलग अलग इलाकों से तो लोग आते ही हैं आसपास के शहरों से भी लोग यहां पहुंचते हैं। शाम को दरगाह पर सलामी के वक्त तो यहां पैर रखने की जगह भी मुश्किल से मिल पाती है और जब नगाडे की आवाज के साथ सलामी दी जाती है तो उस वक्त ऐसा लगता है मानो सारे भूत प्रेत एक साथ नाच उठे हों। इस तरह के अड्डे भारत के कई गाम्रीण इलाकों में भी हैं लेकिन मुंबई जैसे शहर में इसका होना मुझे अजीब लगा।
मुसीबत का मारा इंसान अपनी समस्या का हल पाने के लिये हर तरीका अपनाता है। जब दवा से काम नहीं चलता तो दुआ का सहारा लेता है..लेकिन कई ऐसे भी होते हैं जो इलाज के लिये दवा के बजाय सीधे तंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं।यहां आने वाले ज्यादातर मरीजों के रिश्तेदार ये मानते ही नहीं कि मरीज को कोई मानसिक बीमारी है। उनकी नजर में ये रूहानी ताकतों की चपेट में हैं और इनसे निपटने का तरीका तंत्र-मंत्र ही है न कि मेडिकल साईंस। यहां कई लोग ऐसे हैं जिनका दावा है कि बिना कोई बाहरी इलाज किये सिर्फ यहां आने से ही उनकी हालत में सुधार हुआ है। हमने वहां बात की एक शख्स से जिसका नाम है दशरथ गौतम। दशरथ ने बारहवीं तक पढाई की है और एक चश्मे के स्टोर में काम करता है। दिखने में वो एक आम सेहतमंद नौजवान जैसा ही है...लेकिन कई बार दशरथ अपना होश-ओ हवास खो देता है और उट पटांग हरकतें करने लगता है। तेजी से अपना सिर हिलाने लगता है..जोर जोर से चिल्लाने लगता है...बेहोश हो जाता है। दशरथ के घरवालों का मानना था कि उसे कोई रूहानी ताकत तंग कर रही है। उसके शिक्षक फूफा किसी की सलाह पर उसे दातार दरगाह ले आये। यहां 4 हफ्ते आने के बाद दशरथ का कहना है कि वहां जाने के बाद उसकी तबियत में सुधार हुआ है।
अपने मोबाईल कैमरे में दरगाह के बाहर की तस्वीरों को शूट करके मैं मनोचिकित्सक डॉ. यूसुफ माचिसवाला के पास पहुंचा। उन्हें तस्वीरें दिखाकर मैने पूछा कि लोग ऐसी हरकतें क्यों कर रहे हैं और मनोविज्ञान की नजर में ये सब क्या है। उनका कहना था कि मनोवैज्ञालिक जुबान में इस बीमारी को पजेशन सिंड्रम (POSSESSION SYNDROME) कहते हैं।कई बार लोग बचपन से ही भूत प्रेत वगैरह की कहानियां सुनते हैं और जब किन्ही कारणों से दिमागी सिस्टम अस्त व्यस्त हो जाता है तो लोगों को ये लगता है कि वे किसी आत्मा की गिरफ्त में हैं। ऐसे में कई लोग लोग मनोचिकित्सक के पास जाते हैं तो कई दरगाहों पर मत्था टेकने। डॉ माचिसवाला के मुताबिक अगर दरगाह पर जाने के बाद किसी की तबियत ठीक हो रही है तो इसके पीछे भी मनोवैज्ञानिक कारण है। वे इसे वैकल्पिक इलाज (ALTERNATE THERAPY) मानते हैं। लोगों से सुन सुन कर पीडित व्यकित के दिमाग में ऐसी आस्था जगह बना लेती है कि दरगाह पर जाने से वो ठीक हो जायेगा। उसका यही विश्वास धीरे धीरे उसे बीमारी से पीछा छुडाती है। ऐसी बीमारी का जन्म भी दिमाग में गहरे बैठे खयालों से होता है और उनका निदान भी दिमाग में खयालों से ही हो जाता है।
खैर मनोविज्ञान चाहे जो भी कहता है लेकिन इस रिपोर्ट पर काम करने के बाद मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि भले ही हम 21 वीं सदी में पहुंच गये हों लेकिन आज भी आस्था और अंधविश्वास के बीच की लकीर बहुत धुंधली है।
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एक दम सही विश्लेशण है।
इसे वैकल्पिक इलाज (ALTERNATE THERAPY) मानते हैं। लोगों से सुन सुन कर पीडित व्यकित के दिमाग में ऐसी आस्था जगह बना लेती है कि दरगाह पर जाने से वो ठीक हो जायेगा। उसका यही विश्वास धीरे धीरे उसे बीमारी से पीछा छुडाती है। ऐसी बीमारी का जन्म भी दिमाग में गहरे बैठे खयालों से होता है और उनका निदान भी दिमाग में खयालों से ही हो जाता है।
खैर मनोविज्ञान चाहे जो भी कहता है लेकिन इस रिपोर्ट पर काम करने के बाद मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि भले ही हम 21 वीं सदी में पहुंच गये हों लेकिन आज भी आस्था और अंधविश्वास के बीच की लकीर बहुत धुंधली है।