इस हफ्ते की जिंदगी: हत्या एक पुराने दोस्त की
“ अरे यार जरा चैक करो जे.डे. पर फायरिंग हुई है क्या?”
शनिवार की दोपहर करीब साढे तीन बजे एक परिचित पत्रकार के फोन पर पूछे इस सवाल ने होश उडा दिये। मैने तुरंत जे.डे के ही मोबाइल नंबर पर फोन लगाया, लेकिन उनका फोन बंद था। मेरी चिंता बढ गई। मैने मन ही मन प्रार्थना की कि ये खबर गलत निकले। मोबाइल फोन न लगने पर मैने उनके घाटकोपर वाले घर के लैंड लाईन पर फोन किया, जो उनकी मां ने उठाया।
“आंटी मैं जीतेंद्र बोल रहा हूं। डे कहां है?”
“अभी थोडी देर पहले ही वो घर से निकला है..घंटाभर हुआ होगा..”
मेरी आवाज की हडबडाहट सुनकर उन्हें कुछ गडबडी का शक हुआ। उन्होने मुझसे सवाल किया- “क्यों पूछ रहे हो ऐसा?”
….अब मैं उन्हें क्या बताता कि किस अनहोनी की आशंका की वजह से मैने उन्हें फोन किया है।
“डे का मोबाइल नहीं लग रहा है इसलिये इधर फोन किया था आपको...कोई बात नहीं”।
“…और कैसे हो तुम? सिर्फ टी.वी पर ही दिखते हो… कभी घर पर भी आओ”।
“जी आंटी जरूर आऊंगा”।
इतना कहकर मैने फोन रख दिया।
कुछ देर बाद खबर आई कि जे.डे. नहीं रहे। फायरिंग के बाद उन्हें हिरानंदानी अस्पताल लाया गया था, जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।
अबसे कुछ देर पहले ही मैं उनके अंतिम संस्कार में शरीक होकर घर लौटा हूं फिर भी यकीन नहीं हो रहा कि जे.डे. अब हमारे बीच नहीं हैं।
जे.डे. से मेरी पिछली बातचीत में ये तय हुआ था कि हम आज सुबह चाय पीने के लिये मिलेंगे..लेकिन जे.डे. से मेरी मुलाकात इस हालत में होगी ऐसा अंदेशा बिलकुल भी न था। पिछले हफ्ते जे.ड़े ने बातोंबातों में मुझे बताया था कि उनके पास एक ऐसी तस्वीर है जिसमें अंडरवर्लड डॉन दाऊद इब्राहिम का भाई इकबाल कासकर दाऊद के दुश्मन छोटा राजन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खडा है। मैने जे.डे से कहा कि वो तस्वीर वे मुझे दें दे। मैं अपने चैनल पर अंडरवर्लड से जुडी किसी खबर में उसका इस्तेमाल कर लूंगा। उसी तस्वीर को लेने के लिये आज सुबह का वक्त तय हुआ था।
जे.डे यानी ज्योतिंद्र डे से मेरी दोस्ती करीब 12 साल पुरानी थी। 1999 में जब मैने आज तक के लिये क्राईम रिपोर्टिंग करनी शुरू की तो इस क्षेत्र के जिन रिपोर्टरों से मेरा शुरूवाती परिचय हुआ था उनमें से एक थे जे.डे। जे.डे का इंडियन एक्सप्रैस में छपने वाला साप्ताहिक कॉलम “Notes from the underworld” मुझे बडा पसंद था और अपने कॉलेज के दिनों से ही मैं इस कॉलम को नियमित पढता था। क्राईम रिपोर्टरों की बिरादरी में मैं बिलकुल नया था और जे.डे उस वक्त तक इस क्षेत्र में एक बडा नाम बन चुके थे...लेकिन अपने रूतबे का गुरूर उनमें जरा भी नहीं दिखा। अपने से जूनियर क्राईम रिपोर्टरों की वे बेहिचक मदद करते थे। किसी अधिकारी का नंबर चाहिये या किसी गुनहगार का बैकग्राउंडर जानना हो जे.डे बिना किसी हिचकिचाहट जानकारी दे देते। यही वजह थी कि वे जूनियर क्राईम रिपोर्टरों के बीच कैप्टन साहब नाम से मशहूर हो गये थे, वैसे भी अपनी लंबी चौडी कद काठी की वजह से जे.डे किसी कमांडो की तरह ही दिखते थे और कई बार किसी आपराधिक वारदात के मौके पर कुछ पुलिसवाले उन्हें अपने ही बीच का समझ लेते। धीरे धीरे मैं और जे.डे काफी गहरे दोस्त बन गये। कई सालों तक दिनभर की खबरों के लिये एक दूसरे से सुबह फोन पर बात कर लेना हमारा रूटीन बन चुका था। कसारा के जंगल में चलने वाली गैरकानूनी आरा मिल, खदान माफिया, दाऊद इब्राहिम की रत्नागिरी में पुश्तैनी हवेली, अहमदनगर में चलनेवाली गैरकानूनी आरा मिलें वगैरह कुछ ऐसी बेहतरीन खबरें थीं जो हमने एक साथ की थीं।चूंकि वे अंग्रेजी अखबार में काम करते थे और मैं एक हिंदी न्यूज चैनल में इसलिये हमारे बीच सीधे तौर पर कोई प्रतिद्वंदिता नहीं थीं। कई खबरें हमने साथ में कीं जिनमें ज्यादातर खबरें ऐसीं थीं जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले लोगों के खिलाफ थीं। इस तरह की खबरें हमारी पसंदीदा खबरें थीं क्योंकि कॉलेज के दिनों से ही मैं पर्यावरण संरक्षण के अभियान का समर्थन करता रहा हूं और जे.डे ने भी अपने पत्रकारिता के करियर की शुरूवात इस क्षेत्र की रिपोर्टिंग से की थी। कई बार ऐसा होता कि उनके पास कोई सामग्री हाथ लगती जो अखबार में छपने लायक नहीं होती, लेकिन टीवी के लिये बेहतरीन स्टोरी हो सकती थी तो वे उसे मुझे दे देते। इसी तरह अगर मुझे कुछ ऐसा मिलता जो टीवी में दिखाने लायक नहीं रहता लेकिन अखबार के लिये अच्छी स्टोरी हो सकती थी तो वो मैं उन्हें दे देता।
जे.डे को ये बात अच्छी तरह से मालूम थी कि क्राईम रिपोर्टिंग के क्षेत्र में कामियाबी के साथ साथ साईड इफैक्ट के तौर पर नये दुश्मन भी मिलते हैं। यही वजह है कि अपनी सुरक्षा को लेकर वे हमेशा सचेत रहते थे। जे.डे को कैमरे पर आना बिलकुल पसंद नहीं था। कई टी.वी पत्रकारों ने अनेक बार क्राईम की कोई बडी खबर होने पर बतौर जानकार उनसे बाईट देने के लिये कहा लेकिन हर बार वे ये कहकर मना कर देते -“ बॉस अपनी शक्ल तो टीवी पर आने लायक है ही नहीं।” आमतौर पर भी वे अपने चेहरे का एक बडा हिस्सा टोपी पहनकर छुपाये रखते। किसी से बातचीत करते वक्त हमेशा उनकी नजर इर्द गिर्द घूमती रहती। मोटर साईकिल पर सफर करते वक्त हमेशा उनका ध्यान पीछे चल रहे वाहनों पर होता। जे.डे को अगर जरा भी शक होता कि कोई उनका पीछा कर रहा है तो वे तुरंत अपना रास्ता बदल देते। वैसे भी घर से दफ्तर के बीच आने जाने के लिये वे कभी एक रास्ते का इस्तेमाल नहीं करते थे।
हाल के सालों में मेरा उनसे मिलना कुछ कम हो गया था। ब्यूरो चीफ बनने के बाद फील्ड पर निकलने का मौका अब बहुत कम ही मिल पाता है, लेकिन फोन पर हम नियमित संपर्क में रहते। हर दो चार दिन में हमारी बात होती थी। आखिरी बार मेरी मुलाकात उनसे तब हुई थी जब मिड डे के पत्रकार टी.के. दिवेदी उर्फ अकेला की गिरफ्तारी के विरोध में सभी पत्रकार संगठनों ने प्रैस क्लब से लेकर मंत्रालय तक मोर्चा निकाला था।
जे.डे. दोस्तों के दोस्त थे और उनकी चिता को आग भी एक दोस्त ने ही दी। जे.डे के परिवार में उनकी बीमार मां, बहन और पत्नी के अलावा कोई नहीं है और ऐसे में अंतिम संस्कार के लिये कोई पुरूष सदस्य नहीं था। DNA अखबार के मुंबई ब्यूरो चीफ और हमारे दोस्त निखिल दीक्षित ने ये काम किया।
जे.डे तो चले गये लेकिन उनकी हत्या ने यही संदेश दिया है कि आनेवाला वक्त पत्रकारों के लिये और खतरनाक होने वाला है, ज्यादा चुनौतीपूर्ण होने वाला है और अपराध की दुनिया के राक्षस फिर एक बार बेखौफ होकर मुंबई को अपनी गिरफ्त में लेने के लिये निकल पडे हैं।
Comments
साथ ही जेडे सर की पत्रकारिता को सलाम...
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे...
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