एक महीने बाद : नोटबंदी, नरेंद्र मोदी और नजरिया।
बात 2007 की है। गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गये थे। बीजेपी फिर
एक बार भारी बहुमत से जीती थी। नरेंद्र मोदी नतीजे वाली शाम जीत के बाद चुनाव क्षेत्र
मणिनगर में अपनी पहली जनसभा संबोधित करने जा रहे थे। मंच के ठीक सामने की ओर अपना
कैमरा लगाकर मैं कवरेज कर रहा था। स्थानीय नेताओं के भाषणों के बाद मोदी जैसे ही माईक
के सामने बोलने के लिये खडे हुए वहां मौजूद भीड बडी देर तक तालियां बजाती रही और मोदी
की वाहवाही के नारे लगाती रही। चंद मिनटों बाद ये शोर थम गया। सभा में मौजूद लोग शांत
हो गये कि अब मोदी को सुनते हैं...लेकिन मोदी कुछ नहीं बोले...करीब 30-40 सेकंड तक
मौन रहे और अपने सामने मौजूद भीड को निहारते रहे।...फिर उन्होने पहली लाईन
कही – “ये मेरे मौन की विजय है”। सभास्थल फिर एक
बार तालियों की गडगडाहट और नारों से गूंज उठा। मोदी की इस अदा ने उस वक्त मुझे भी उनका
प्रशंसक बना दिया। उस चुनाव के दौरान जो कुछ भी हुआ था उसे जानकर मोदी का ये कहना
कि “ये मेरे मौन की विजय
है” के मायने मैं समझ रहा था।
ये वाकई में मोदी के मौन की विजय ही थी। मोदी उस वक्त कईयों के निशाने
पर थे। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अपनी सभा में मोदी को “मौत का सौदागर” बोलकर उनपर सीधा हमला कर रहीं थीं। खुद बीजेपी
के केंद्रीय और राज्य के आला नेता उनके खिलाफ अपनी नाराजगी जाहिर कर रहे थे। बीजेपी
में मोदी से नीचे के कद के लोगों का एक वर्ग भी उनका विरोध कर रहा था। 2002 के दंगों
की कहानियां उछाल कर मीडिया भी उन्हें आडे हाथों ले रही थी...लेकिन मोदी मौन रहे। उन्होने
न तो सोनिया पर पलटवार किया, न तो अपनी पार्टी के नेताओं से बहस की और न मीडिया
में अपने खिलाफ हो रहे कवरेज पर प्रतिक्रिया दी। मोदी सभाओं में सिर्फ अपने कामों
को गिनाते गये और भविष्य की योजनाओं का बताते गये। बाकी सभी नकारात्मक बातों पर
मौन रहे और इसी मौन को अपनी जीत का आधार बताकर मोदी ने अपनी विजय सभा में कहा – “ये मेरे मौन की विजय है”।
मोदी की उस सभा के बाद मैं उनसे बडा प्रभावित हुआ (भक्त नहीं बना) मैंने
सोचा कि मोदी की इस सियासी रणनीति को हम अपने निजी जीवन में भी अपना सकते हैं।
नकारात्मक बातों को नजरअंदाज करके अपना काम करते जाओ। 7 साल बाद 2014 में जब मोदी
प्रधानमंत्री बने तब भी मैंने उनके सियासी सफर को प्रेरणादायक पाया। अपने शुरूवाती
“मन की बात” कार्यक्रम में मोदी ने एक
बात कही जो मुझे अच्छी लगी – “जीवन में कुछ बनने की नहीं बल्कि कुछ करने की इच्छा होनी चाहिये”। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी के कई कार्यक्रम मुझे अच्छे लगे और
सोशल नेटवर्किंग साईट्स के जरिये मैने उनकी प्रशंसा भी की जैसे जनधन खाते, बेटी बचाओ,
स्वचछ भारत अभियान, योगा डे इत्यादि। 2005 में मैने श्रीश्री रविशंकर का आर्ट औफ लिविंग
का कोर्स किया था लेकिन बाद में ज्यादा दिनों तक प्रैक्टिस नहीं कर सका। योग के
प्रति फिर एक बार रूचि जगी जब मोदी ने पहली बार योगा डे मनाने का ऐलान किया। इस
बात ने भी प्रभावित किया कि मोदी खुद सुबह 4 बजे उठकर योग करते हैं। उस दौरान मै
योग के बारे में और ज्यादा जानकारी जुटाने लगा और खुद भी रोजाना योग करना शुरू कर
दिया। ये आदत आज भी कायम है।
मोदी में इतनी सारी सकारात्मक बातें देखकर और उनकी कुछ नीतियां खुद अपनाकर
भी अपनेआप को मैं खुशनसीब मानता हूं कि मैं उनका भक्त नहीं बना। एक चीज जो मेरी समझ
में आई है कि दुनिया में ज्यादातर लोगों का दूसरे व्यकित या वस्तु को देखने का
नजरिया This OR
That का होता है। लोग यो तो किसी व्यकित या वस्तु को पूरी तरह से अच्छा या
फिर पूरी तरह से बुरा समझ लेते हैं। मुझे लगता है कि किसी को आंकने का ये
अन्यायपूर्ण नजरिया है। सही नजरिया This AND That का है। कोई व्यकित या वस्तु
में कुछ अच्छा भी हो सकता है और कुछ बुरा भी यानी good AND bad न कि सिर्फ good OR bad.
दिक्कत ये है कि आज मोदी को लेकर कई लोग this AND that का नजरिया अपनाने
के बजाय this
OR that का नजरिया अपना रहे हैं। यही वजह है कि देश में मोदी के अंधभक्त और अंधविरोधियों
के 2 तबके उभर आये हैं। अंधभक्तों का तबका मोदी के व्यकितत्व और नीतियों में कोई
बुराई नहीं देखता और अंधविरोधी लोग मोदी में कोई अच्छाई नहीं देखते। ये दोनो ही
तबके मोदी के व्यकितत्व का गलत आंकलन कर रहे हैं।
मैं मोदी के व्यकित्तव को This AND That के नजरिये से देखता हूं। यही
वजह है कि मोदी के शख्सियात और उनकी कई नीतियों का कायल होने के बावजूद जिस तरह से
उन्होने देश में नोटबंदी लागू की है उसका मैं विरोध करता हूं। आज नोटबंदी को एक महीने
पूरे हो रहे हैं और इस महीनेभर में मैने लोगों की तकलीफें देखीं हैं। खुद अपना
पैसे हासिल करने के लिये लोगों को घंटों और दिनों तक अपना कामधंदा छोडकर कतार में खडे
देखा है, बीमार पडकर गिरते देखा है, रोते देखा है, पुलिस की लाठियां खाते देखा है,
शादी ब्याह टलते देखा है, बेमौत मरते देखा है, 2 हजार की नोट पाकर छुट्टे के लिये
लोगों को झगडते देखा है। नोटबंदी को लेकर अब आर्थिक विश्लेषक जो राय दे रहे हैं
उसका सार मुंबईया जुबान में यही है – “चार आने की मुर्गी बारह आने का मसाला”। लोगों ने कालेधन को सफेद
करने के नये तरीके ढूंढ लिये हैं। खुद मोदी की पार्टी बीजेपी के नेता लाखों-करोडों
के कालेधन के साथ पकडे जा रहे हैं। आंतकवादी के कोई हौसले पस्त नहीं हुए। देश पर
आर्थिक मंदी की तलवार लटक रही है।
ये बात सही है कि जिस तरह से मैं मोदी के व्यकितत्व को सिर्फ Good OR Bad के नजरिये से नहीं
देखता, उसी तरह नोटबंदी के फैसले को भी नहीं देखता...लेकिन फिलहाल महीनेभर के अनुभव
के बाद नोटबंदी में good कम और bad ज्यादा नजर आ रहा है।
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