जब IPS चोर की तरह आगे आगे और मैं पुलिस की तरह पीछे पीछे...
“ए के
जैन आप ही हो?”
मैने मुंबई की सेशंस कोर्ट की पुरानी इमारत की एक अदालत के
कोन में खडे, सफेद शर्ट पहने और गंभीर भाव भंगिमा वाले एक शख्स से पूछा।
जिस अकड के साथ तनकर ये शख्स खडा था उससे अंदाजा आ रहा था
कि ये कोई आला पुलिस अधिकारी है।
मेरे सवाल पर उसने मेरी ओर गुस्सेभरी नजरों से देखा और फिर
जज की ओर देखने लग गया।
मुझे विश्वास था कि जिस शख्स को मैं तलाश रहा हूं वो यही
है, लेकिन मैं पूरी तरह से आश्वस्त होना चाहता था।
मैने पास खडे एक पुलिस कांस्टेबल से पूछा- “यहां
मुंबई पुलिस के एडिश्नल कमिश्नर ए.के.जैन कौन हैं जिन्होने एंटीसिपेट्री बेल की
लिये अर्जी दी है?
उस कांस्टेबल ने चुपचाप उसी सफेद शर्ट वाले की ओर उंगली
दिखाते हुए मेरे कान में कहा-“यही हैं जैन साब”।
मैं फिर उसकी तरफ गया।
“जैन
साब मैं जीतेंद्र दीक्षित हूं...आज तक का क्राईम रिपोर्टर। आप पर लगे आरोपों के
सिलसिले में मुझे आपका पक्ष जानना है। बाहर मेरा कैमरा लगा है। कोर्ट की कार्रवाई
खत्म होने के बाद 2 मिनट के लिये आ जाईये”।
“मैं
जानता हूं तुमको। गो अवे। मुझे कोई बात नहीं करनी है”।
ए.के.जैन ने भौंहे टेढी कर मुझे जवाब दिया। मैने फिर भी
कोशिश जारी रखी। समझाने की कोशिश की कि शायद अपना पक्ष देने के बाद उनकी कोई मदद
हो सकती है..लेकिन मेरे हर शब्द के साथ जैन का चेहरा लाल होता जा रहा था। आखिर में
मैने तय किया कि मैं अपना कैमरा सेशंस कोर्ट के मुख्य दरवाजे के बाहर लगाऊंगा ताकि
जब जैन बाहर निकलेंगे तो मैं तुरंत अपना बूम माईक उनके सामने डालकर सवाल पूछने लग
जाऊंगा। मेरे लिये उसकी साऊंड बाईट बहुत जरूरी थी। मैं नया नया क्राईम रिपोर्टर
बना था और अपने काम में कोई कमी नहीं रखना चाहता था।
ये बात साल 2000 की है और उसके एक साल पहले ही यानी 1999
में मेरी आज तक में नौकरी लगी थी। उस वक्त “आज तक” न्यूज चैनल में तब्दील नहीं हुआ था और उसका प्रसारण
डीडी मेट्रो पर रात 10 बजे एक आधे घंटे के समाचार कार्यक्रम की शक्ल में होता था।
तब आज तक की मुंबई रिपोर्टिंग टीम में मुझे मिलाकर 3 लोग ही थे। मिलिंद खांडेकर
ब्यूरो में सबसे वरिष्ठ थे और ब्यूरो का प्रशासनिक कामकाज भी वही देखते थे। टीम की
तीसरी सदस्य दिप्ता जोशी थीं, जिन्होने बाद में “आज तक” छोड दिया। किसी की कोई खास बीट नहीं थी। हर कोई, हर
कुछ कवर करता था। चाहे आरबीआई की क्रेडिट पॉलिसी हो, शुक्रवार को रिलीज होने वाली
नई फिल्म पर दर्शकों की प्रतिक्रिया हो या फिर शिवाजी पार्क से बाल ठाकरे का भाषण,
हम तीनों में से ही कोई भी इन्हें कवर करता। ये वो दौर था जब मुंबई में संगठित
अपराध अपने चरम पर थे। हर दिन एक-दो शूटआउट्स और पुलिस एनकाउंटर होते थे। कोई ऐसा
हफ्ता नहीं बीतता था जब हम पुलिस की गोलियों से छलनी 3-4 गैंगस्टरों की लाशें नहीं
देखते। दिप्ता जोशी के छोडने के बाद एक दिन मिलिंदजी ने (मैं उन्हें ऐसे ही
संबोधित करता हूं, हालांकि इसपर उन्हें ऐतराज है।) मुझे क्राईम बीट पूरी तरह से
सौंप दी ताकि वे अपना ध्यान बडी खबरों पर लगा सकें। मेरे लिये भी रूटीन क्राईम कवर
करना बेहद जरूरी था ताकि इस बीट में मेरे सूत्र बन पाते। ए.के.जैन का मामला बतौर
क्राईम रिपोर्टर मेरी पहली स्टोरी थी।
ए.के.जैन मुंबई पुलिस के सेंट्रल रीजन के एडिशनल कमिश्नर थे
जो कि डीआईजी रैंक का
अफसर होता है। जैन पर आरोप था कि उन्होने अपने ही आधीन काम करने वाले एक इंस्पेक्टर
संजीव कोकिल से 5 लाख रूपये की रिश्वत मांगी ताकि लापरवाही के एक मामले में
विभागीय कार्रवाई के तहत वो कोकिल सस्पेंड न करें। कोकिल ने इसकी शिकायत एंटी
करप्शन ब्यूरो से कर दी। जैन ने रिश्वत की रकम अपने सीए पी.लोढा को देने को कहा
था। एसीबी ने लोढा का गिरफ्तार कर लिया और अब बारी थी जैन की गिरफ्तारी की। जैन ने
अपनी गिरफ्तारी से बचने के लिये सेशंस कोर्ट में अग्रिम जमानत के लिये अर्जी डाली
थी, जिसपर आज सुनवाई होनी थी।
जैन की अर्जी पर फैसला अदालत ने अगले दिन तक के लिये टाल
दिया। जैन अदालत के कमरे से बाहर निकल कर सेशंस कोर्ट के मेन गेट की तरफ आने लगे।
मैने अपने कैमरामैन गजानन गूजर को तुरंत सचेत किया और बताया कि सफेद शर्ट में गेट
की तरफ आ रहे शख्स के शॉट्स लेने हैं और उसकी बाईट लेने की कोशिश करनी है। उस वक्त
सोनी पीडी-170 या पी-2 जैसे हलके डिजिटल कैमरों का दौर शुरू नहीं हुआ था। गजानन के
कंधे पर 10 किलो का भारी भरकम बीटा कैमरा था। इससे पहले की गजानन कैमरे पर
रिकॉर्डिंग शुरू कर पाते जैन ने मुझे गेट पर खडा हुआ देख लिया और मुझसे नजर टकराते
ही वे तुरंत पलटी मार कर तेजी से सेशंस कोर्ट के पिछले दरवाजे की ओर चलने लग गये।
“रूकिये...रूकिये...जैन
साब। आपसे बस 2 मिनट बात करनी है”।जैन को रोकने के लिये मैं जोर से चिल्लाया।
“शीSSSSSSS...ऐ ये
कोर्ट है। इधर जोर से बोलने का नहीं...फाईन पडेगा नहीं तो”।
कोर्ट की सुरक्षा के लिये तैनात एक पुलिसकर्मी ने मुझे चेतावनी।
उसकी चेतावनी को नजर अंदाज करते हुए मैं जैन के पीछे भागा।
“रूक
जाईये जैन साब...बस 2 मिनट की बात है। हमसे बात करके आपका कोई नुकसान नहीं होगा”।
जैन ने एक बार मुडकर मेरी ओर देखा और फिर अपने चलने की
रफ्तार और बढा दी। मैने जैन का पीछा जारी रखा।
जल्द ही जैन सेशंस कोर्ट के पीछे वाले गेट से बाहर निकल कर
ओवल मैदान के सामने वाली सडक पर आ गये। उन्होने पीछे मुडकर देखा, मैं और मेरा
कैमरामैन उनके काफी करीब तक पहुंच चुके थे। फिर क्या था उन्होने तेजी से सडक पर दौडना
शुरू कर दिया। मैं जैन की इस हरकत के लिये तैयार नहीं था। मैंने भी उनके पीछे
भागना शुरू किया और चिल्लाया- “रूक जाईये जैन साब। बस 2 मिनट का सवाल है। नो कमेंट बोलेंगे
तब भी चल जायेगा...”
लेकिन जैन ने रूकने के बजाय अपने दौडने की रफ्तार और बढा
दी।
सडक पर चल रहे लोगों के लिये ये नजारा बडा ही अजीब थी। आगे
आगे सफेद शर्ट में ए.के.जैन सरपट दौड रहे थे, उनके पीछे “आज तक” का
माईक लिये मैं था और मेरे पीछे भारी भरकम कैमरा लेकर कैमरामैन गजानन गूजर दौड रहे
थे।ऐसा लग रहा था जैसे पुलिस वाले किसी चोर के पीछे उसे पकडने के लिये दौड रहे
हों। जैन ने आईपीएस की ट्रेनिंग के दौरान भले ही दौडने का अभ्यास किया हो, लेकिन दौडने
में उन्हें तकलीफ हो रही थी, ये साफ झलक रहा था। वे हांफ रहे थे, गर्मी का मौसम था
और पसीने से शर्ट गीला हो गया था...मेरी और गजानन की भी यही हालत थी... थकान से
जैन की रफ्तार बीच बीच में थोडी सुस्त हो जाती और वे मुडकर पीछे देखते तो मैं फिर
चिल्लाता- रूक जाईये जैन साब...और मुझे देखते ही जैन के कदम फिर तेजी से दौडने
लगते।
मुझे जैन की इस हालत को देखकर हंसी भी आ रही थी और उनपर दया
भी। कुछ देर पहले जिस जैन को मैने अदालत में अकड के साथ किसी आला अफसर की तरह तन
कर खडा हुआ देखा था, वो बिलकुल बेचारा नजर आ रहा था और किसी चोर की तरह मुझसे बचने
की कोशिश कर रहा था। एक एडिशनल पुलिस कमिश्नर की ये हालत मुझे हजम नहीं हो रही थी।
आमतौर पर बतौर एडिशनल कमिश्नर जैन लाल बत्ती की कार में घूमते थे, उनके साथ उनका
वर्दीधारी ड्राईवर और अर्दली रहता था, मुंबई के दर्जनभर पुलिस थानों के एसएचओ
(सीनियर इंस्पेक्टर), करीब 3 डीसीपी और 8 एसीपी उनके मातहत काम करते थे और उन्हें
सैल्यूट ठोंकते थे। वही एडिशनल कमिश्नर ए.के.जैन मुझसे बचने के लिये चोरों की तरह
भाग रहे थे।
मैने भी सोच लिया था कि भले ही जैन मुझे बाईट न दें, लेकिन
कम से कम उनके शॉट्स तो मैं ले ही लूंगा क्योंकि तब तक जैन की कोई तस्वीर हमारे
पास नहीं थी। मैंने जैन का पीछा जारी रखा। मुझे भी दौडने की आदत नहीं थी इसलिये
हंफन छूट रही थी। सबसे ज्यादा दिक्कत कैमरामैन गजानन को हो रही थी। वो भारी कैमरा
उठा कर शॉट्स भी ले रहा था और दौड भी रहा था।
जैन के पीछे दौडते दौडते हम सेशंस कोर्ट से करीब 1 किलोमीटर
दूर ईरॉस सिनेमा के पास पहुंच गये। मैं जैन से करीब 100 मीटर की दूर पर ही रहा
होऊंगा कि जैन अचानक बीच सडक पर आ गये और सामने से आ रही एक टैक्सी के बोनट पर जोर
से हाथ पटक कर ठेठ पुलिसलिया अंदाज में बोले- “रूक बे”।
टैक्सी के रूकते ही वो सीधे ड्राईवर की बगल वाली सीट पर
बैठे और इससे पहले की मैं उन तक पहुंच पाता टैक्सी वहां से निकल गई।
मेरी गाडी सेशंस कोर्ट पर ही रह गई थी और पीछे से तुरंत कोई
खाली टैक्सी भी नहीं दिखी इसलिये मैं जैन का आगे पीछा नहीं कर पाया। मेरे कैमरा
मैन ने उनके शॉट्स तो ले लिये थे, लेकिन जैन की बाईट रह गई थी।
अगले दिन सेशंस कोर्ट ने जैन की अग्रिम जमानत अर्जी खारिज
कर दी। जैन ने इसके बाद बॉम्बे हाईकोर्ट में अपील की। बॉम्बे हाईकोर्ट से अपील
खारिज होने के बाद एसीबी ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के बाद महाराष्ट्र
सरकार ने उन्हें सस्पेंड कर दिया।
गिरफ्तारी वाले दिन के बाद मेरी जैन से मुलाकात सीधे 13 साल
बाद 10 अप्रैल 2013 को उसी सेशंस कोर्ट में हुई जहां से मैने उनका पीछा किया था।
सेशंस कोर्ट ने जैन को 5 साल कैद-ए-बामशक्कत की सजा सुनाई थी। जिस
वक्त जैन को नासिक जेल जाने वाली पुलिसिया वैन में बिठाया जा रहा था मैं जैन के
पास पहुंचा- “जैन
साब पहचाना मुझे। मैं जीतेंद्र दीक्षित। 13 साल पहले यहीं मुलाकात हुई थी आपसे”।
“हां...हां..जीतेंद्र
तुमको क्यों नहीं पहचानता? कैसे
हो?”
देखिये...मैने आपको उस दिन अपनी बात रखने का मौका दिया था।
इन 13 सालों तक आप सस्पेंड रहे ...आपके खिलाफ ही खबरें आतीं रहीं।तब आप बात कर
सकते थे।
हां...यार शायद मैं बात कर लेता तो ऐसा नहीं होता। खैर मैं
इस फैसले के खिलाफ अपील करूंगा। जमानत मिलने पर बात जरूर करूंगा।
Comments
best of luck. girdhari purohit