" मुंबई में गैंगस्टर जान बचाने के लिये हमसे छुपते थे, गढचिरौली में नक्सलियों से जान बचाने के लिये हम छुपते हैं।"
बडे दिनों बाद
इस हफ्ते मुंबई पुलिस के पूर्व एनकाउंटर स्पेशलिस्ट इंस्पेक्टर रविंद्र आंग्रे से मुलाकात
हुई। आंग्रे से मेरा परिचय करीब 14 साल पहले हुआ था जब मुंबई की सडकों पर लगभग हर
रोज पुलिस गैंगस्टरों को पकड कर मारती थी और पुलिस की इस गतिविधि को एनकाउंटर का
नाम दिया जाता था। उस दौर में ऐसे एनकाउंटर की खबर टीवी के क्राईम रिपोर्टर को
पहले पता लगना और टीवी पर उसे दूसरों से पहले दिखाया जाना अहम माना जाता था। आंग्रे
की पोस्टिंग अब महाराष्ट्र के नक्सल प्रभावित गढचिरोली जिले में की गई है, ये वो
इलाका है जिसके नाम से पुलिसकर्मियों की रूह कांपती है और यहां पोस्टिंग का मतलब
उनके लिये काले पानी की सजा से कम नहीं होता। हर वक्त गले पर नक्सली हमले की तलवार
लटकती रहती है। किसी भी वक्त जान जा सकती है और नहीं गई तो हो सकता है कि जिंदगी
भर के लिये अपाहिज बनकर भी रहना पडे। 1983 बैच की इस अधिकारी को मैं करीब 6-7 साल
बाद देख रहा था। गोरे रंग के आंग्रे का चेहरा गढचिरौली की गर्मी में थोडा सांवला
जरूर हो गया था, लेकिन अब भी 57 साल का ये अधिकारी उम्र में कम से कम 10 साल कम ही
नजर आ रहा था। आंग्रे ने मुंबई और ठाणे पुलिस में काम करते वक्त अपनी पिस्तौल से
53 गैंगस्टरों को यमलोक पहुंचाया, जिनमें ठाणे शहर को आतंकित करने वाला डॉ़न सुरेश
मंचेकर भी शामिल था। उस वक्त आंग्रे की इमेज एक हीरो की थी, लेकिन 8-9 साल की
शोहरत के बाद आंग्रे की बुरे दिन शुरू हुए। जबरन उगाही और हत्या की कोशिश के 2 केस
दायर होने के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फिर निलंबित कर दिया गया। साल
2012 में दोनो केसों से बरी होने के बाद आंग्रे पुलिस सेवा में फिरसे बहाल हुए,
लेकिन उन्हें मुंबई में पोस्टिंग देने के बजाय गढचिरौली भेज दिया गया।
आंग्रे गढचिरौली
से छुट्टी लेकर मुंबई आये थे। हमने दादर इलाके में चाय पर मुलाकात की। करीब घंटेभर
तक चली गुफ्तगू के दौरान आंग्रे ने नक्सली इलाके में काम करने के जो अनुभव बताये वे बडे रोचक थे। मुंबई जैसे
कांक्रीट के जंगल में गैंगस्टरों को ढूंढ कर मारने और गढचिरौली जैसे इलाके में
नक्सलियों से मुकाबला करने में क्या फर्क होता है? कैसे मुंबई का शिकारी, गढचिरौली में खुद शिकार बनने
के खौफ में जीता है? ये खुद आंग्रे से लफ्जों में ही
पढिये-
“ जिस इलाके में मेरी पोस्टिंग हुई है उसे महराष्ट्र पुलिस का डंपिंग ग्राउंड
माना जाता है। अगर किसी पुलिसवाले को सजा दी जानी है या उसे किसी और जगह पोस्टिंग
के लायक नहीं माना जाता तो उसे गढचिरौली भेज दिया जाता है। हम मुंबई में
गैंगस्टरों को ढूंढ ढूंढ कर मारते थे और गढचिरौली में नक्सली पुलिस वालों को ढूंढ
ढूंट कर मारते हैं। मुंबई में गैंगस्टर जान बचाने के लिये हमसे छुपते थे, गढचिरौली
में हम नक्सलियों से जान बचाने के लिये छुपते हैं। गढचिरौली में मैं या मेरी तरह
और कोई भी पुलिसवाला अपना पुलिसिया परिचय पत्र कभी साथ नहीं रखता। उसकी जगह पर
स्वास्थय विभाग या शिक्षा विभाग जैसे दूसरे सिविल सरकारी संगठनों का आईकोर्ड वे
रखते हैं। किसी भी पुलिस के वाहन पर “पुलिस“ लिखा नहीं दिखेगा। गढचिरौली से नागपुर के बीच करीब
100 किलोमीटर का फासला है। ये दूरी सभी पुलिसवाले आते-जाते वक्त छुप छुप कर तय करते
हैं। अपने पास कोई ऐसी चीज नहीं रखते जिससे ये साबित हो कि हम पुलिसवाले हैं। ऐसी
भी वारदातें हो चुकीं हैं जब छुट्टी पर अपने घर जा रहे पुलिसकर्मी को नक्सलियों ने
बस से उतार कर उसकी हत्या कर दी। बीते 20 सालों में नक्सलियों ने 200 से ज्यादा
पुलिसकर्मियों की हत्या अकेले गढचिरौली में ही की है। हमें बडा छुप छुप कर जीना
पडता है। जरूरी सामान खरीदने बाजार भी दबे पांव जाना पडता है। हम अगर बीमार पडे तो
हमें डॉक्टर नहीं मिलता। नक्सलियों ने डॉक्टरों को भी धमकी दे रखी है कि अगर किसी
पुलिसवाले का इलाज किया तो उसे खत्म कर दिया जायेगा। हम अपने घरवालों से भी संपर्क
में नहीं रह सकते। घर में अगर कोई बीमार है या कोई इमरजेंसी है तब भी हम संपर्क
नहीं कर सकते क्योंकि गढचिरौली में मोबाइल टावर नहीं हैं। जो थे उन्हें नक्सलियों
ने जला डाला। अगर किसी पुलिसकर्मी की यहां
पोस्टिंग होती है तो अगले ही दिन से वो अपना कार्यकाल खत्म करने की उलटी गिनती
गिनना शुरू कर देता है।कोई यहां रहना नहीं चाहता। पुलिस थानों की शक्ल किसी किले की
तरह नजर आती है। चारों तरफ हथियारबंद पुलिसकर्मियों का पहरा रहता है। हर पल
नक्सलियों के हमले का खतरा बना रहता है। वो कहीं भी कभी भी हमला कर सकते हैं।
पुलिस थानों में भी कोई ऐसा काम नहीं होता जो कि देश के सामाऩ्य इलाकों के पुलिस
थानों में होता हो। महीनों तक छोटी सी अदखलपात्र शिकायत (Non Cognisable Offence) तक नहीं आती। अगर आती है तो नक्सलियों के किसी
कारगुजारी की जानकारी...लेकिन हम उसपर भी तुरंत हरकत में नहीं आते। मसलन अगर किसी
वाहन को नक्सलियों ने आग लगा दी हो तो उसका मालिक हमारे पास शिकायत दर्ज करवाने
आता है ताकि की बीमा का दावा किया जाये, लेकिन हम तुरंत मौके पर नहीं जाते। हम 3-4
दिनों के बाद घटनास्थल पर जाते हैं क्योंकि इस बात की आशंका बनी रहती है कि
नक्सलियों ने घटनास्थल पर लैंड माईन बिछा दी हो या फिर वे घात लगाकर पुलिस की टीम
के वहां पहुंचने का इंतजार कर रहे हों। चंद साल पहले ऐसी ही एक घटना हुई। सडक
बनाने वाले एक कांट्रेकटर के ट्रक को नक्सलियों ने जला दिया। उसने पुलिस थाने में
शिकायत दर्ज की। उसकी शिकायत के 4 दिनों बाद एक सब इंस्पेक्टर और करीब आधा दर्जन
कांस्टेबल पंचनामा करने के लिये मौके पर पहुंचे। उन्हें उम्मीद थी कि शायद नक्सली
तब तक वहां से चले गये होंगे, लेकिन उनका अंदाजा गलत निकला। सभी पुलिसकर्मियों की
नक्सलियों ने बेदर्दी से हत्या कर दी”।
“आपको क्या लगता है नक्सलवाद के खिलाफ लडाई में कहां चूक हो रही है?” मैने आंग्रे से पूछा।
“नक्सलवाद के खिलाफ सरकार की रणनीति ही पूरी तरह से गलत है। शुरूवात में
क्षेत्र का विकास न होने का कारण बताकर नक्सलियों ने स्थानीय लोगों की सहानुभूति
जीती और उनका समर्थन हासिल किया और अब वे ही विकास नहीं होने दे रहे हैं। सडक
बनाने का काम हो, स्कूल बनाने का काम हो, अस्पताल चलाने का काम हो, आधुनिकीकरण का
काम हो...हर विकास की कोशिश को नक्सली अपनी बंदूक से रोक देते हैं। गांव का कोई
युवक अगर पढाई करता दिख जाये तो ये लोग जाकर उसकी पिटाई करते हैं, उसकी किताबें
फाड देते हैं। आज सरकार इन इलाकों का विकास करना चाह भी रही है तो ये नक्सली खून
खराबे के जरिये होने नहीं दे रहे। नक्सलियों की इन हरकतों की वजह से स्थानीय लोगों
में भी उनके प्रति पैदा हुई सहानुभूति खत्म हो रही है। वे समझ गये है कि जिसे बुरे
हाल में वे हैं, नक्सली उन्हें वैसा ही रखना चाहते हैं। सरकार को लोगों की इस
बदलती सोच का नक्सलवाद के खिलाफ लडाई के लिये फायदा उठाना चाहिये। नक्सलवाद के
खिलाफ लडाई की रणनीति में जमीनी तौर पर भी ढेर सारी खामियां हैं। सबसे अहम बात ये
है कि गढचिरौली में ऐसे पुलिसकर्मियों को ही पोस्टिंग देनी चाहिये जो खुद से यहां
आना चाहते हैं। जो दिलेर हैं और जिनके अंदर नक्सलवादियों से लडने का जज्बा है,
लेकिन सरकार ऐसे पुलिसकर्मियों को यहां भेजती है जो एक दिन पहले ही पुलिस की
पासिंग आउट परेड से निकले हैं, जिन्हें पुलिसिया कामकाज की हकीकत का कोई अंदाजा
नहीं होता, जिनका कोई खुफिया नेटवर्क नहीं होता और जो गढचिरौली के नाम से अखबारों
या टीवी चैनलों के जरिये पहले ही बडे आतंकित हो चुके होते हैं। जो आदमी खुद अपनी
जान की खैर मनाते हुए यहां आया हो, वो दूसरे की जान बचाने की हिम्मत कहां से
रखेगा। दूसरे किस्म के पुलिसवाले यहां ऐसे हैं जिनकी पोस्टिंग यहां सजा के तौर पर
हुई है। वे जैसे तैसे यहां दिन काटने आये हैं, नक्सलवादियों को खत्म करने के लिये
नहीं। एक बडी खामी ये भी है कि यहां हर पुलिस कर्मी की पोस्टिंग महज 2 या ढाई साल
के लिये होती है। इस तरह के जंगली इलाके को समझने, यहां के लोगों के बीच अपना
नेटवर्क बनाने के लिये ये वक्त बडा ही कम है। हमारा इंटैलिजैंस नेटवर्क भी बडा
कमजोर है। हमें ये तो पता चल जाता है कि नक्सलियों का गुट अमुक गांव में बीती रात
आकर ठहरा था, वहां उसने खाना-पीना किया, लेकिन हमें ये जानकारी मिलनी चाहिये कि
नक्सली फलां गांव में फलां वक्त पर पहुंचने वाले हैं तब जाकर उनके खिलाफ किसी
एक्शन की तैयारी हो सकती है।”
“आप सालभर गढचिरौली में गुजार चुके हो। आपके मुताबिक नक्सलवाद की खिलाफ रणनीति
में किन बदलावों की जरूरत है ?”
“नक्सवाद से लडना और अंडरवर्लड से लडना दोनो में जमीन आसमान का फर्क है, लेकिन
मेरा मानना है कि नक्सवाद से लडने के लिये भी बुनियादी तौर पर वैसी ही रणनीति
अपनाई जानी चाहिये जैसी की नब्बे के दशक में मुंबई अंडरवर्लड से लडने के लिये
मुंबई पुलिस ने बनाई थी। सबसे पहले तेज सोच वाले एक अच्छे आईपीएस अफसर की जरूरत
है, जो कि इस लडाई का नेतृत्व कर सके, कडे फैसले ले सके और वफादार और काबिल अफसरों
की टीम खडी कर सके, जैसा की पंजाब में के.पी.एस गिल ने किया था या फिर मुंबई में
डी.शिवानंदन और राकेश मारिया जैसे अफसरों ने किया। ऐसे अधिकारियों की टीम बननी
चाहिये जो यहां खुद से काम करना चाहते हों और जिनमें इंटैलिजैंस नेटवर्क बनाने की
काबिलियत हो। उनके लिये एक बडा सीक्रेट फंड होना चाहिये ताकि उनके खबरी उनके प्रति
वफादार रहें और लगातार जरूरत की जानकारी लाते रहें। दूसरी बात है स्थानीय लोगों को
अपने से जोडने की। जैसा की मैने पहले कहा कि लोग नक्सलवादियों से ऊब चुके हैं और
उनसे नफरत करने लगे हैं। इस बात को हमें भुनाना चाहिये। मैने नक्सलप्रभावित इलाके
के कई युवाओे से बात की। वे पुलिस फोर्स में भर्ती होना चाहते हैं। इनसे बडी मदद
मिलेगी। इनकी भर्ती के लिये नियम कानूनों में बदलाव जरूरी है। कई नक्सली सरेंडर
करना चाहते हैं। उनके सरेंडर पैकेज को और लुभावना बनाना भी जरूरी है। ऐसे कई
बुनियादी परिवर्त किये गये तो 2 साल के भीतर सकारात्मक नतीजे देखने मिलेंगे...लेकिन
मुझे नहीं लगता कि पुलिस महकमें में जिस तरह की राजनीति होती है उसके मद्देनजर ये
कभी मुमकिन हो सकेगा। मुझे लगता है कि नक्सली वक्त के साथ और ज्यादा ताकतवर होते
जायेंगे।”
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