गोविंदा गेला रे गेला...
बीते 12 साल से मैं जन्माष्मी के मौके पर ठाणे के पांच पखाडी इलाके से अपने
चैनल पर लाईव देते वक्त देशवासियों का इस त्यौहार से परिचय कुछ इस तरह से कराता था
– “मुंबई का गोविंदा साहस और
संस्कृति का प्रतीक है। ये त्यौहार कई तरह के संदेश देता है। ये टीम वर्क सिखाता
है। ये सिखाता है कि ऊंचे लक्ष्य तक पहुचने के लिये जोखिम भी उठाना पडता है। ये
सिखाता है कि कई बार मंजिल तक पहुंचने के लिये गिरने-पडने के बाद भी कोशिश करनी
पडती है। त्यौहार से ये भी संदेश मिलता है कि आधार अगर मजबूत है तो मिनार देर तक
टिकती है, नहीं तो लडखडा जाती है।”।
इस साल भी शायद यही लाईनें कैमरे पर दोहराता, लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश
के बाद अब गोविंदा का त्यौहार वैसा नहीं रहने वाला जैसा सालों से मनाया जाता रहा
है। बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश से मैं आंशिक रूप से खुश भी हूं और दुखी भी। खुश
इसलिये कि हाईकोर्ट ने नाबालिग बच्चों के इस त्यौहार में शिरकत करने पर रोक लगा दी
है। मैं खुद भी यही चाहता था। दुखी इस बात से हूं कि अब इस त्यौहार की जान ही निकल
गई है। अदालत का आदेश है कि मटकी लटकाने की ऊंचाई 20 फुट से ज्यादा न हो। इसका
मतलब ये कि 5 फुट के 4 आदमी भी अगर एक के ऊपर एक खडे होते हैं तो वे मटकी को लपक
लेंगें। अब तक त्यौहार में 9 मंजिलों वाली 40 फुट से ऊंची इंसानी मीनारें बनाई जा
चुकीं हैं। इस तरह अगर ये त्यौहार मनाया
जाता है तो मेरी नजर में वो सिर्फ एक औपचारिकता भर होगी। इसमें संसकृति तो मिल
जायेगी, लेकिन साहस नहीं रहेगा।
गोविंदा का त्यौहार गोकुल में भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं की नकल कर उन्हें याद
करने का एक माध्यम भर नहीं है। ये उससे कहीं ज्यादा है। मेरी नजर में ये
मुंबईवालों का एडवेंचर स्पोर्ट्स है। मुंबई के निचले और मध्यम वर्गीय युवा जो स्काई
डाईविंग, बंगी जंपिंग, पैरा ग्लाईडिंग, स्कूबा डाईविंग, राफ्टिंग वगैरह जैसे महंगे
एडवेंचर स्पोर्ट्स का खर्च वहन नहीं कर सकते, उनके लिये तो सालाना त्यौहार गोविंदा
ही अपने जोश को अभिव्यक्त करने का मौका देता है। झुग्गियों और छोटी छोटी चालों में
रहने वाले युवा महीने भर पहले से इंसानी मीनारें बनाने की प्रैक्टिस शुरू कर देते
हैं। जाहिर है चोट लगने की, घायल होने की या बदनीसीबी से मृत्यू की गुंजाईश तो हर एडवेंचर
स्पोर्ट्स में रहती है। एडवेंचर स्पोर्ट्स में जोखिम का होना तो स्वाभाविक है।
दुनिया भर में एडवेंचर स्पोर्टस के दौरान हादसे होते है रहते हैं, लेकिन क्या उन
खेलों को सरकार बंद कर देती है, या फिर उसमें एडवेंचर की खूबी निकाल लेती है।
जोखिम है, खतरा है तभी तो उसमें रोमांच है, दिलचस्पी है। गोविंदा की मनोहरता को
नष्ट करने के बजाय जरूरत थी कि गोविंदा पथकों की सुरक्षा पर जोर दिया जाता।
गोविंदा के मौजूदा स्वरूप के विरोधी कहते हैं कि इस त्यौहार ने व्यावसायिक रूप
ले लिया था, ये राजनेताओं के प्रचार का एक माध्यम बन गया था वगरैह वगैरह। इस पर
मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि कोई त्यौहार अगर वक्त के साथ खुद को बदलता चल रहा है
तो क्या बुराई है। राजनेता तो हर उस चीज में अपना हित साधते हैं जिनमें जनता की
दिलचस्पी हो। राजनेताओं के पैसों ने त्यौहारों को भव्य बनाया। इसमें डीजे जोडा
गया, बडी ईनामी रकमें जोडी गईं, स्पेन के मानव पिरामिड बनाने वाली टीमों को
मुकाबले के लिये बुलाया गया, मैनेजमेंट के छात्रों को भी यहां प्रबंधन के गुण
सीखने के लिये बुलाया जाने लगा। गोविंदा को बडे पैमाने पर आयोजित करने वाले कुछ
राजनेता मेरे दोस्त हैं और ये सभी अलग अलग पार्टी के हैं। मैने एक ओर इन्हें जितना
त्यौहार की चमक-दमक पर करते देखा तो दूसरी ओर गोविंदा में शामिल होने वालों की
सुरक्षा और उनके बीमा का भी इंतजाम करते देखा। मैं 5 ऐसे राजनेताओं को जानता हूं जो
कि गोविंदा बडे पैमाने पर मनाने के लिये मशहूर हैं, उनकी मटकी कम से कम 50 फुट की ऊंचाई
पर लटकती है, गोविंदा टीमें वहां 9 मंजिलों का मानव पिरामिड बनाने की कोशिश करतीं
हैं और वे लाखों रूपये का ईनाम बांटते हैं। इनमें से 3 राजनेता ऐसे हैं जो कि
हिंदुत्ववादी पार्टियों से जुडे हुए हैं। अचरज की बात है कि अदालती आदेश के बाद ये
तीनों नेता चुपचाप बैठ गये, वहीं हिंदुओं के त्यौहार को प्रभावित करने वाले इस
आदेश को वो राजनेता सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कर रहा है, जिसकी पार्टी
खुदको सेकुलर मानती है। वैसे गोविंदा को आधुनिक चकाचौंध वाली शक्ल ठाणे के इसी
राजनेता ने ही सबसे पहले दी थी। जब उसके गोविंदा की चर्चा होने लगी और तमाम
राष्ट्रीय न्यूज चैनल उसके यहां अपनी ओबी वैन लगाकर लाईव दिखाने लगे तो बाकी
राजनेताओं को भी ये आईडिया मिल गया। मुंबई में एक विधायक ऐसा है जो गोविंदा के
माध्यम से ही राजनीति में दाखिल हुआ। 2009 के पहले इसे मुंबई में कोई नहीं जानता
था...लेकिन उसी साल जन्माष्टमी पर इसने बडी ईनामी रकम वाली मटकी लटकाई और अपनी
तस्वीरों के साथ मुंबई भर में उसका जोर शोर से प्रचार किया। फार्मूला काम कर गया।
राज ठाकरे की पार्टी एमएनएस ने उसे चुनाव का टिकट दे दिया।
बचपन से ही गोविंदा मेरा पसंदीदा त्यौहार रहा है। अभिनेता शम्मी कपूर पर
फिलमाये गये “गोविंदा आला रे आला…“ गाते हुए गली के बच्चों के साथ मैं भी छोटे-मोटे मानव
पिरामिड बना लेता था। कुछेक बार चोट भी लगी, लेकिन फिर भी सालभऱ इस त्यौहार का
इंतजार रहता। अब बतौर टीवी पत्रकार इसका इंतजार रहता था। टीवी तस्वीरों का माध्यम
है। इस त्यौहार के रंगों को कवर करने की बात ही अलग थी। बनते-गिरते मानव पिरामिड
और पानी की बौछार पर नाचते हुए गोविंदाओं की जोशभरी तस्वीरें शायद अब कभी कवर न
मिलें...गोविंदा गेला रे गेला...
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