मन की रेल न हो सकी मोनोरेल !

दिल्ली के रेल संग्रहालय में भारत की पहली यात्री मोनोरेल

रेल सफर और रेलगाडियों में बचपन से खास दिलचस्पी रही है। साल 2008 में जब मैं वडाला के भकित पार्क में रहने गया तो ये जानकर खुशी हुई कि यहां से मोनोरेल लाईन गुजरने वाली है जो मुंबई के उत्तर-पूर्वी उपनगर चेंबूर को दक्षिण मुंबई के सात रास्ता तक जोडेगी। मोनोरेल की सवारी मैं क्वालालुमपुर में मलेशिया के सफर के दौरान कर चुका था और वो मुझे पसंद आई। मुझे लगा कि मोनोरेल रोजाना मेरे घर से दफ्तर आने जाने का माध्यम बन जायेगी। ट्रैफिक जाम में वक्त और कार के ईंधन की बर्बादी नहीं होगी और न ही मानसिक थकान झेलनी होगी। मेरा दफ्तर सातरास्ता के करीब महालक्ष्मी में था। खैर 2014 मे मोनोरेल शुरू होने के 2 साल पहले ही यानी 2012 में ही एबीपी न्यूज का दफ्तर महालक्ष्मी से अंधेरी आ गया। सात रास्ता तक लाईन अभी भी शुरू नहीं हुई है। मोनोरेल तो मेरे काम की नहीं निकली लेकिन अंधेरी में दफ्तर पहुंचने के लिये मेट्रो रेल का इस्तेमाल करने मुझे मिल रहा है।   

हाल ही में एबीपी न्यूज के लिये स्पेशल रिपोर्ट पर काम करते हुए मोनोरेल की सवारी का मौका मिला। उसकी तमाम खामियां मैं उस रिपोर्ट में दिखा चुका हूं। जो नहीं दिखाया वो यहां लिख रहा हूं। मोनोरेल पर मैं वडाला से चढा और अपना शूट खत्म करके आखिरी स्टेशन यानी चेंबूर पहुंचने का बैठकर इंतजार करने लगा। टप...टप...टप.. अचानक पैंट पर पानी की बूंदें गिरी। मैं सोच में पड गया कि पानी कहां से आया। क्या छत से पानी टपक रहा था? बाहर बारिश नहीं हो रही थी। गौर से देखने पर पता चला कि पानी कोच के एयरकंडिश्नर से टपक रहा था। पानी न केवल जिस जगह मैं बैठा था वहां टपक रहा था, बल्कि कोच में कई दूसरी जगह भी टपक रहा था। इसके अलावा एक और बात मुझे अखरी। अगर आप आंख बंद करके कुछ देर के लिये मोनोरेल में सफर करें और ये भूल जायें कि आप मोनोरेल में बैठें हैं तो यकीन मानिये आपको मोनोरेल की सवारी और किसी दूर दराज के गांव में पथरीली कच्ची सडक पर चलने वाली बैलगाडी की सवारी के अनुभव में कोई फर्क नहीं महसूस होगा। बैलगाडी और मोनोरेल में बैठकर आप एक जैसे ही हिलेडुलेंगे और खड...खड..खड..की आवाज भी वैसी ही आयेगी। मोनोरेल सफर का ये वर्णन अतिश्योकित नहीं है। मुंबई मोनोरेल की सवारी वैसी बिलकुल नहीं थी जैसी मैने मलेशिया में की थी। दिलचस्प बात ये है कि मुंबई में भी वही मलेशियाई स्कोमी कंपनी लार्सन एंड टूब्रो के साथ मोनोरेल चला रही है जो क्वालालुमपुर में चलाती है।

मुंबई मोनोरेल को पाईलेट प्रोजेक्ट के तौर पर शुरू किया गया था यानी अगर ये मुंबई में कामियाब होती है तो भारत के दूसरे शहरों में भी इसे शुरू किया जा सकता है। वैसे भारत में पिछली सदी में पहले भी 2 बार मोनोरेल के प्रयोग हो चुके हैं। केरल की कुंदला घाटी में 1902 से लेकर 1924 के बीच मोनोरेल चलती थी, लेकिन वो वैसी नहीं थी, जैसी हम आज देखते हैं। मोनोरेल का एक पहिया लोहे की पटरी पर होता था और दूसरा जमीन पर। डिब्बों को बैल खींचते थे। उस मोनोरेल का इस्तेमाल चाय और दूसरे माल को ढोने के लिये किया जाता था। मुसाफिरों के लिये पहली मोनोरेल 1907 में Patiala State Monorail Trainway (PSMT) ने शुरू किया था और ये करीब 20 साल तक चली। उस मोनोरेल का एक मॉडल दिल्ली के रेल संग्रहालय में रखा हुआ है। पटियाला का प्रयोग नाकामियाब होने के बाद मोनोरेल के बारे में सीधे 21वीं सदी में सोचा गया जब मुंबई में बढती आबादी को देखते हुए यातायत के नये माध्यम की जरूरत हुई। मोनोरेल से उम्मीद थी कि ये कार इस्तेमाल करने वाले लोगों को आकर्षित करेगी जिससे सडक पर ट्रैफिक कम होगा और वायु और ध्वनि प्रदूषण में भी कमी आयेगी।

मोनोरेल का जो पहला चरण मुंबई में चल रहा है उसे देखकर निराशा होती है। 9 किलोमीटर के इस चरण में 7 स्टेशन आते हैं जिनमें से 3 स्टेशन आबादी की सहूलियत को ध्यान में रखकर नहीं बनाये गये। सुरक्षा को लेकर भी बडे सवाल हैं कि अगर मोनोरेल किसी हादसे का शिकार होती है तो मुसाफिरों को कैसे बचाया जायेगा। एक मिसाल हम 15 मार्च को देख चुके हैं जब 11 मुसाफिर मोनोरेल की बिजली गुल हो जाने की वजह से फंस गये थे। खुशनसीबी से तब जान और माल का कोई नुकसान नहीं हुआ, लेकिन फायर ब्रिगेड ने भविष्य में सुरक्षा को लेकर चिंताएं जताईं हैं। सीएजी ने भी अपनी रिपोर्ट में मोनोरेल के निर्माण के दौरान 21 तरह की खामियों के बताया है। मोनोरेल मुसाफिरों के लिये तरस रही है। रोजाना महज 5 हजार लोग ही इसमें सफर करते हैं जिनसे सिर्फ 50 हजार रूपये की आमदनी होती है, जबकि मोनोरेल चलाने का प्रतिदिन का खर्च 7 लाख रूपये के करीब है।


बहरहाल, मोनोरेल का दूसरा चरण इस साल के आखिर तक शुरू होने की उम्मीद है जिसके बाद पूरा नेटवर्क 20 किलोमीटर लंबा हो जायेगा और मुंबई के उत्तर-पूर्वी उपनगर दक्षिण और मध्य मुंबई के इलाकों से जुड जायेंगे। उम्मीद है कि तब मोनोरेल अपने अस्तित्व को सार्थक कर सकेगी और बीती गलतियों से सीखकर जरूरी सुधार कर सकेगी...तब तक मुंबई के बाहर से आये मेहमानों की जॉय राईड के लिये मोनोरेल की सवारी करवाई जा सकती है।

Comments

Harsha gor said…
This is worth reading .Good blog.
Anil Galgali said…
आप के मन की तो नही लेकिन किसी के मनमुताबिक तो काम को अंजाम दिया गया है। एक अच्छी योजना को कैसे फेल कर उसे सफेद हाथी साबित किया जाता है? इसका ज्वलंत उदाहरण यानी मोनो रेल। 2 वर्ष के बाद अगर राज्य सरकार सब्सिडी नही देती है तो ये भी मोनो रेल किसी संग्रहालय की शोभा जरुर बनेगी। ABP न्यूज़ की टीम और जीतू भाई को बधाई इसलिए कि इसकी पोल जनता के बीच लाकर सबको सचेत जो किया है।

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