मुंबई और रंगभेद : हम काले हैं तो...


ऐ कल्लू मामा !
तेरा क्या होगा कालिया !
निग्रो है निग्रो !
ऐ ब्लैक मैंबो !
ओय काले भैंसे !
ये कुछ ऐसे शब्द हैं जो मुंबई में पढाई, कारोबार या पर्यटन के लिये आने वाले हर अफ्रीकी नागरिक को आये दिन सुनने पडते हैं। रंगभेद समाज की नजर का वो दोष जो इंसान की कीमत उसकी चमडी के रंग से आंकता है। दुनिया भले ही इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में पहुंच गयी है लेकिन रंगभेद अब भी बरकरार है। इसे देखने के लिये यूरोप या अमेरिका जाने की जरूरत नहीं है। हाल ही में दिल्ली और गोवा में भी रंगभेद से जुडी घटनाएं हुईं। भारत के सबसे आधुनिक शहर मुंबई में भी ये खुलेआम नजर आता है। मुंबई में बडे पैमाने पर अफ्रीकी देश जैसे नाईजीरिया, केन्या, घाना, युगांडा, कैमरून, तंजानिया, सोमालिया और इथियोपिया के छात्र मैनेजमेंट, इंजानियरिंग, मास कॉम्यूनिकेशंस जैसे विषयों की पढाई करने के लिये मुंबई आते हैं और यहां लगभग सभी के साथ ऐसे अनुभव हुए हैं जो उनके शरीर के रंग से जुडे हैं। हाल ही में मेरी मुलाकात चंद दक्षिण अफ्रीकी छात्रों से हुई और उनकी आपबीती सुनने के बाद मुझे दुख भी हुआ, शर्मिंदगी भी हुई और गुस्सा भी आया। ये बात सही है कि हाल के सालों में अफ्रीकी देशों से आये नागरिकों की ओर से किये गये गुनाहों की तादाद बढी है, कई अफ्रीकी गैरकानूनी तरीके से भारत में रह रहे हैं, मुंबई और आसपास तो इनकी बस्तियां भी बन गईं हैं...लेकिन ये सिर्फ सिक्के का एक ही पहलू है। समस्या है सभी काले लोगों को एक ही चश्में से देखे जाने की।

27 साल के सानी अमद की चमडी का रंग उनके लिये जिंदगी असामान्य और मुश्किलोंभरी बना देता है। नाईजीरिया के लागोस शहर से आनेवाले सानी ने बी.एम.एम की पढाई के लिये भारत को चुना क्योंकि यहां अंतरार्ष्ट्रीय दर्जे की शिक्षा मिलती है, वीजा आसानी से मिल जाता है, पढाई के लिये फीस कम है और रहने के लिये घर का किराया भी सस्ता है। 2014 में सानी के कारोबारी पिता ने उसे भारत भेजा। सानी को मुंबई के एन.एन.कॉलेज में दाखिला तो आसानी से मिल गया लेकिन काफी मशक्कत के बाद मुंबई से दूर खारघर में उसे किराया का घर मिल पाया। इन दो सालों में सानी को कई कडवे अनुभवों का सामना करना पडा...कई बार उसे महसूस कराया गया कि वो औरों से अलग है...सिर्फ अपने शरीर के रंग की वजह से।
हाल ही में अचानक सानी के घर पुलिस आ धमकी।पता चला कि मकान मालिक के साथ कांट्रेक्ट की तारीख करीब हफ्तेभर पहले पूरी हो चुकी थी, लेकिन सानी ने उसे रिन्यू नहीं करवाया जिसकी वजह से हाऊसिंग सोसायटी के लोगों ने सीधे पुलिस में शिकायत कर दी। सानी को इस बात का दुख है कि पुलिस के पास जाने से पहले सोसायटी ने एक बार भी उससे बातचीत नहीं की। कांट्रेक्ट इसलिये रिन्यू नहीं हो सका था क्योंकि मकान मालिक देश के बाहर था।

कॉलेज के शुरूवाती दिन भी सानी के लिये मुसीबत भरे थे। क्लास के बाकी छात्र उसका मजाक उडाते थे और उसे अलग थलग रखते थे...लेकिन सानी का कहना है कि धीरे धीरे उनके व्यवहार में सानी के प्रति नरमी आई। सानी का कहना है सभी भारतीय एक जैसे नहीं हैं। मैं वो गलती नहीं करूंगा जो कई भारतीय अफ्रीकियों के बारे में करते हैं...सभी को एक जैसा समझते हैं। मुझे कई अच्छे भारतीय भी मिले

सानी की सहपाठी मास कम्यूनिकेशंस की पढाई कर रहीं चिनवे माडुआको 2 साल पहले नाईजीरिया से मुंबई आईं थीं...लेकिन इन 2 सालों में कोई भारतीय चिनवे का दोस्त नहीं बन सका। क्लास के बाकी छात्र मिलकर चिनवे का मजाक उडाते हैं और कोई उससे बात नहीं करता। क्लास खत्म होने के बाद जहां बाकी छात्र कैंपस में मौजमस्ती और गपशप करते हैं तो वहीं चिनवे चुपचाप घर चली आती है। कॉलेज आते जाते हुए भी उसका मजाक उडाया जाता है। चिनवे के मुताबिक जब मैं चलती हूं तो मेरे कानों में काली...निग्रो जैसे शब्द सुनाई देते हैं। मैं समझ जातीं हूं कि मुझपर कमेंट किया जा रहा है। पहले मैं इससे विचलित हो जाती थी लेकिन अब तो ये रोज की बात हो गई है।
जिस वक्त मैं चिनवे से बात कर रहा था उसी वक्त उसे उसकी एक अफ्रीक सहेली का फोन आया जो चिनवे की तरह ही मुंबई में पढाई कर रही थी। उसकी सहेली को बिना कोई कारण बताये मकानमालिक ने रातोंरात घर खाली करने को कह दिया। हाउसिंग सोसायटी वालों ने मकानमालिक पर दबाव डाला था कि वो इमारत में किसी अफ्रीकी को नहीं देखना चाहते। अब उसके सामने सवाल था कि वो कहां रहे। वो काफी रो रही थी। चिनवे के मुताबिक अफ्रीका से आये छात्रों के लिये मुंबई में किराये का घर हासिल करना टेढी खीर है। कोई अफ्रीकन छात्रों को आसानी से घर देने को तैयार नहीं होता। घर मिल भी जाये तो भी इस बात का डर बना रहता है कि कभी भी उन्हें निकलने के लिये कहा जा सकता है।

ब्रेवायो नाम के एक छात्र के मुताबिक मुंबई में हर कदम पर उसे रंगभेद का सामना करना पडता है। बाजार में खरीददारी करते वक्त, सार्वजनिक वाहन में सफर करते वक्त, घर ढूंढते वक्त, हाउसिंग सोसायटी से एनओसी लेते वक्त, कॉलेज में एडमिशन लेते वक्त और पुलिस और इमीग्रेशन से जुडे काम पडने पर।

इन छात्रों का मानना है कि उनसे बुरे बर्ताव के पीछे उनका रंग तो है ही, साथ ही उनके देशों से आये चंद लोग आपराधिक वारदातों को अंजाम देते है जिनकी वजह से सभी को शक की नजर से देखा जाता है। हाल के सालों में कई ऐसे मामले सामने आये हैं जिनमें अफ्रीकी नागरिकों को आपराधिक मामलों में पकडा गया। किसी पर ड्रग्स की तस्करी का आरोप लगा, तो किसी पर ऑनलाईन ठगी की। कोई चोरी और लूटपाट के आरोप में पकडा गया तो कोई गैरकानूनी तरीके से भारत में रहने के आरोप में। रिटार्यड एसीपी शमशेरखान पठान मुंबई के पायधुनी पुलिस थाने के सीनियर इंस्पेक्टर (थाना प्रभारी) रह चुके हैं। पायधुनी मुंबई के उन इलाकों में है जहां बडी तादाद में अफ्रीकी नागरिक रहते हैं। पठान के मुताबिक - अफ्रीकी अपराधियों से निपटना पुलिस के आसान नहीं है। सबसे बडी दिक्कत इनकी पहचान स्थापित करने की होती है। जो अफ्रीकी गलत इरादे से भारत आते हैं वो आपना पासपोर्ट जला देते हैं, जिससे ये पता करना मुश्किल हो जाता है कि वो किस देश से आये हैं। देश का पता चल भी जाये तो उन्हें डीपोर्ट करना भी महंगा काम है। एक अफ्रीकी को डीपोर्ट करने पर 1 लाख रूपये से ऊपर का खर्चा आता है। ये लोग बडे हिंसक भी होते हैं और कई बार पुलिस के लिये इन्हें संभाल पाना मुश्किल हो जाता है। मुंबई के पायधुनी, डोंगरी, मोहम्मद अली रोड, मसजिद बंदर और मुंबई के पास मीरा रोड, भायंदर और नवी मुंबई में अफ्रीकी नागरिकों की बस्तियां हैं पठान का कहना है कि पुलिस सभी काले अफ्रीकियों को शक की नजर से देखती हैं, लेकिन उनके मुताबिक वास्तव में सिर्फ 5 या 10 फीसदी अफ्रीकी ही आपराधिक गतिविधियों में पाये लिप्त पाये जाते हैं।
चिनवे के मुताबिक उसके देश नाईजीरिया में कई भारतीय बसे हैं जो वहां बेफिक्र होकर कारोबार करते हैं, घूमते-फिरते हैं। वहां भारतियों को सम्मान की नजर से देखा जाता है, उनके साथ अच्छा बर्ताव होता है। ऐसे में चिनवे को ये सवाल सता रहा है कि फिर उके साथ भारत में बुरा सलूक क्यों होता है ?

अब भी दुनिया में किसके साथ कहां कैसा व्यवहार होगा, ये अब भी बडी हद तक उसकी चमडी के रंग पर निर्भर करता है, लेकिन भारत में रंगभेद का होना दुखद है।

अंग्रेज हम भारतियों के साथ रंगभेद करते थे क्योंकि वो गोरे थे और हम गेंहुए रंग के। अब हममें से कई लोग वही सलूक अफ्रीकी नागरिकों के साथ उनके रंग की वजह से कर रहे हैं। अंग्रेजों की गुलामी से तो भारत आजाद हो गया लेकिन हम अब भी रंग के गुलाम बने हुए हैं। 

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