मुंबई पुलिस के इतिहास का वो काला अगस्त !

बबन जाधव के साथ
स्वतंत्र भारत की मुंबई पुलिस के इतिहास में 2 काले अगस्त आये हैं। 11 अगस्त 2012 को मुंबई के आजाद मैदान के बाहर जो कुछ भी हुआ उसकी यादें अभी भी ताजा हैं। उस दोपहर पुलिसकर्मियों पर हमला किया गया, कईयों को दंगाईयों ने पीटपीट कर अधमरा कर दिया, पुलिस के वाहन जलाये गये और महिला पुलिसकर्मियों की इज्जत पर हाथ डालने की कोशिश हुई...वाकई पुलिस के लिये बेहद शर्मिंदगी का दिन था ! ....लेकिन अबसे 34 साल पहले भी 1982 में अगस्त के महीने में ही एक ऐसा वक्त आया था जब मुंबई पुलिस बहुत बुरे दौर से गुजरी। उस दौरान मुंबई पुलिस के कर्मचारियों के एक वर्ग ने बगावत का ऐलान कर दिया था।
11 अगस्त 2012 को आजाद मैदान के बाहर जो कुछ हुआ उसे तो मैने खुद देखा, लेकिन 19 अगस्त 1982 को जो कुछ हुआ उसकी कहानी सुनाई मुझे बबन जाधव ने। बबन जाधव अब उन गिनेचुने जिंदा बचे पुलिसकर्मियों में रह गये हैं जो उस पुलिस बगावत में शामिल हुए थे। बबन जाधव से मेरी दोस्ती साल 2003 में हुई थी जब बैन लगने के बाद पकडे गये सिमी के सदस्यों को कुर्ला कोर्ट में पेश किया जा रहा था और तब जाधव कोर्ट की सुरक्षा के प्रभारी थे। हाल ही में कई सालों बाद मेरी उनसे ठाणे में मुलाकात हुई।

मुझे गणपति के त्यौहार के मौके पर उठाकर जेल में डाल दिया। अगर गुनाह मेरा था तो मेरे घरवालों को सरकारी घर से निकाल कर क्यों सडक पर फैंक दिया ? उनपर केस क्यो बना दिया? दाऊद इतना बडा अपराधी है लेकिन क्या उसकी सजा उसके घरवालों को जेल में भेजकर दी गई ?...लेकिन मुझ पुलिसवाले के किये की सजा मेरे घरवालों को मिली। तब मेरी 3 महीने की बेटी थी, 70 साल की बूढी मां थी...उनको घर से निकाल दिया गया
- बबन जाधन जब उस दौर को याद करते हैं तो उनकी आंखें गुस्से से लाल हो जातीं हैं। उस दौर में पुलिसकर्मियों की यूनियन हुआ करती थी मुंबई पोलीस कर्मचारी संघटना जिसके जाधव सदस्य थे।

बंड(बगवात)  क्यों हुआ था? मैने जाधव से पूछा।
मैं उसको बंड नहीं मानता। वो हमारा आंदोलन था। हम चाहते थे कि हमें सम्मानजनक तरीके से नौकरी करने मिले। हमें आईपीएस अफसरों के घरों में नौकरों का काम करवाया जाता था...सब्जी-भाजी खरीदने भेजा जाता, कुत्ते घुमवाये जाते थे, बर्तन मंजवाये जाते थे...ये सब क्या पुलिस का काम है? हमें छुट्टियां नहीं लेने दी जातीं थीं। हमारा वेतन बडा ही कम था। यही नहीं हमारे सरकारी पुलिस क्वार्टर छीनकर उसे एक निजी बिल्डर को देकर वहां टॉवर बनाने की साजिश थी। इसी वजह से हमें आंदोलन पर उतरना पडा

पुलिसकर्मियों के इस आंदोलन के संकेत उस साल 15 अगस्त को ही मिल गये थे जब कई पुलिसकर्मी काले फीते बांधकर डयूटी पर आये। आंदोलन का असली असर 19 अगस्त को दिखा। बताया जाता है कि उस वक्त के 22000 पुलिसकर्मियों में से 9500 पुलिसकर्मी आंदोलन में शामिल हुए थे। मुंबई में कई जगह पर पथराव हुआ, लोकल ट्रेनों को रूकवाकर मोटरमैनों को बाहर निकाल दिया गया, ट्रेनों के रूकने से गुस्साये मुसाफिरों ने स्टेशनों तोडफोड शुरू कर दी। पुलिसकर्मियों के इस आंदोलन में मिल मजदूर भी शामिल हो गये जो कि खुद बीते 7 महीने से हडताल पर थे। पुलिस हडताल पर है ये जानकर अपराधियों के भी हौसले बुलंद हो गये और उन्होने बेखौफ होकर लूटपाट शुरू कर दी जिसमें सबसे ज्यादा नुकसान वर्ली के सेंचुरी बाजार को पहुंचा। वर्ली नाके पर सबसे ज्यादा हिंसा हुई। हिंसा कर रही भीड से निपटने के लिये फौज ने फायरिंग की जिसमें 2 मिल मजदूरों और एक पुलिसकर्मी की मौत हो गई। नायगांव इलाके में भी एक युवा की मौत हुई।

उस वक्त मुंबई के पुलिस कमिश्नर जूलियो रिबैरो थे, जिन्होने अपनी आत्मकथा मैं ब्यौरा दिया है कि कैसे इस आंदोलन से निपटा गया। बागी पुलिसकर्मियों से निपटने के लिये फौज बुलाई गई और साथ ही वफादार पुलिसकर्मियों की मदद ली गई। पुलिस यूनियन के 22 नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। 92 पुलिसकर्मियों को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। पुलिस यूनियन पर पाबंदी लगा दी गई और आगे भी किसी तरह की पुलिस यूनियन बनाये जाने पर रोक लग गई।

हडताली पुलिसकर्मियों की कई मांगे जायज थीं, लेकिन पुलिस यूनियन के कई नेताओं ने भी अति कर दी थी। यूनियन के नेता वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से बदमीजी करते थे और उनसे मारपीट करने तक को तैयार रहते थे। वे पुलिस फोर्स का अनुशासन नहीं मानते थे और न ही वर्दी पहनते थे। एक पुलिसकर्मी जो कि ओशो का भक्त था उसने मांग कर दी कि पुलिस की वर्दी का रंग खाकी के बजाय गेरूआ कर दिया जाये। ज्यादातर यूनियन के नेता सामान्य ड्यूटी पर हाजिर नहीं रहते थे और अपनी मनमानी करते थे। उस दौरान पुलिस यूनियन के नेता एस.डी.मोहिते को तत्कालीन मुख्यमंत्री ए.आर.अंतुले ने काफी सिर चढा रखा था और उनकी ओर से यूनियन को दफ्तर खोलने की जगह भी दी गई थी।


जब मैने बबन जाधव से यूनियन नेताओं की इन ज्यादतियों के बारे में सवाल पूछा तो जाधव ने माना का कि उस दौरान अनुशासनहीनता हुई थी लेकिन ऐसा करने वाले चंद लोग ही थे, आंदोलन में शामिल सभी पुलिसकर्मी नहीं। जाधव का आज भी ये मानना है कि तमाम सरकारी महकमों में पुलिस महकमा सबसे ज्यादा शोषित महकमा है और उसे अपना दर्द सरकार तक पहुंचाने के लिये एक संगठन की जरूरत है। 

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