जब मेरी नफरत, मेरी पत्रकारिता पर हावी हो रही थी !


जब मेरी नफरत, मेरी पत्रकारिता पर हावी हो रही थी !
-जीतेंद्र दीक्षित।

नवी मुंबई के कलंबोली में हुए दंगे का कवरेज देखकर कल से लगातार कई लोग पूछ रहे हैं- इतना रिस्क कैसे उठा लिया? डर नहीं लगा क्या? क्या खाकर गये थे भई?
उनके लिये यही जवाब है कि उस वक्त मेरे भीतर पैदा हुई नफरत की भावना ही मुझसे ये सब करवा रही थी।
किसी भी घटना के कवरेज के वक़्त पत्रकारों को तटस्थ रहना चाहिए लेकिन कल मैंने कलंबोली में दंगा कवर करते वक़्त जो कुछ भी देखा तो मन आंदोलनकारियों के प्रति गुस्से और नफरत से भर गया। ये भावनाएं मेरी पत्रकारिता पर हावी होती महसूस हुईं।

कलंबोली में हिंसा की खबर मिलने पर जब में वहां अपने कैमरामैन सचिन शिंदे के साथ पहुँचा तब तक आंदोलनकारी पुलिस के 3 वाहनों को आग में जलाकर खाक कर चुके थे।करीब 500 आन्दोलनकारियों की भीड़  मुम्बई पुणे एक्सप्रेस हाईवे के मुहाने पर थी। किसी भी वाहन को वहां से गुजरने नही दिया जा रहा था। अगर कोई निकलने की कोशिश करता तो उसपर पथराव होता। पुलिस भी वहां बड़ी संख्या में मौजूद थी लेकिन शायद से सख्ती न बरतने की हिदायत दी गयी थी।

जिस कलम्बोली सर्किल पर आन्दोलनकारियों ने रास्ता रोक रखा था वहां से एक्सप्रेस वे के अलावा मुम्बई पुणे पुराना हाईवे और मुम्बई गोवा का हाईवे भी जुड़ता है। इस तरह से आंदोलनकारियों ने 3 प्रमुख हाईवे बंद कर दिए थे। सुबह जब आंदोलनकारी यहां जमा हुए तो वे दोनो तरफ से एक एक लेन से वाहनों को आने जाने दे रहे थे, लेकिन दोपहर 1 बजे के बाद उन्होने सडक पूरी तरह से
जाम कर दी थी।

ये आंदोलनकारी पत्रकारों को भी अपना निशाना बना रहे थे। मेरे वहां पहुंचने से कुछ वक़्त पहले ही एक मराठी अखबार के फोटोग्राफर की बुरी तरह से पिटाई हुई थी। किसी को कैमरा निकालने नही दिया जा रहा था।

मैंने अपने कैमरे को एक बैग में छुपाया और पैदल ही एक्सप्रेसवे पर पुणे की ओर चलने लगा ये सोचबकर कि आगे जाकर जहां आंदोलनकारी नज़र नही आएंगे तो वहां कैमरा निकालकर घंटो से जाम में फंसे लोगों से बात करूँगा।

एक्सप्रेसवे पर कई किलोमीटर लंबी ट्रकों, बसों और कारों की कतार लगी हुई थी। उनमे मौजूद लोग परेशान हाल नज़र आये। एक कार में पुणे से आ रहा परिवार था जिसमे पति पत्नी के साथ उनके 2 छोटे बच्चे और करीब 80 साल की बूढ़ी मां थी। आदमी के चेहरे पर बेबसी साफ नज़र आ रही थी। बच्चे रो रहे थे। न कुछ खाने के लिए था और न पीने के लिए पानी। दोपहर एक बजे से ये परिवार इस हाल में वहां अटका हुआ था।  उन्होंने बताया कि वे बीते 4 घंटे से वहां ऐसे ही फंसे हुए हैं। उनका हाल देखकर मेरा दिल पसीज गया। ऐसा मेरे साथ भी तो हो सकता था। मै भी अक्सर इस सड़क से अपने परिवार के साथ आता जाता रहा हूँ। जिस मुद्दे को लेकर आंदोलन किया जा रहा था उससे इनका कोई सरोकार नही था और न ही आंदोलनकारियों की मांगो को पूरा करने के लिए ये कोई फैसला लेने वाले लोग थे...फिर इन्हें सजा क्यों मिल रही थी? इन्होंने किसी का क्या बिगाड़ा था? इन्ही ख़यालों ने मेरे मन में आन्दोलनकारियों के प्रति घृणा को जन्म दिया। इस परिवार की तरह मुझे कई लोग मिले जो बेवजह प्रताड़ित हो रहे थे। मैं कैमरा निकालकर इन लोगों से बात करना चाहता था, लेकिन देखा की आंदोलनकारी मोटरसाइकिल्स पर डंडा लेकर घूम रहे थे। जोखिम था कि अगर उन्होंने देख लिया तो हम पीटे भी जाएंगे और कैमरा भी टूटेगा। वहां से निकलकर में पास ही की एक ऊंची इमारत की छत पर गया और वहां से कैमरे पर बंद हाईवे का पूरा हाल दिखाया।

जब मैं मुम्बई की दिशा में वापस लौटने लगा तो देखा कि सामने भगदड़ मच गयी है और पथराव शुरू हो गया है। पुलिस हरकत में आ चुकी थी। लाठी चार्ज, हवाई फायरिंग और आंसू गैस के गोले छोड़ते हुए पुलिस ने दंगाइयों को खदेड़ना शुरू कर दिया। दंगाई भी भागते हुए पुलिस पर पत्थर बरसाने लगे। सामने जो वाहन नज़र आया उसे उन्होंने तोड़ दिया।

मैंने भी अब बेखौफ होकर अपना कैमरा निकाला और पुलिस ओर दंगाइयों की भिड़ंत दिखाने लगा। एक सनसनाता हुआ पत्थर कान से इंच भर की दूरी से निकल गया। दूसरा पत्थर साथ चल रहे पुलिसकर्मी के दाहिने पैर पर जा लगा और उससे खून बहने लगा। पुलिस ने दंगाईयों की ओर आँसू गैस के गोले दागे लेकिन हवा की दिशा विपरीत होने की वजह से वो उल्टा पुलिसकर्मियों पर ही असर करने लगी। मेरी आंखों में भी तेज जलन होने लगी।

मैं अपने चैनल पर लगातार लाईव तस्वीरें दिखाने लगा और जो कुछ भी चल रहा था, उसका ब्यौरा देने लगा। मैने महसूस किया कि मेरी आवाज में गुस्सा और आक्रमकता झलक रही थी...मैं चीख चीख कर बोल रहा था। पुलिस की टुकडी के साथ दौडते हुए बोलते वक्त हंफन महसूस हो रही थी, लेकिन मेरी आंखों के सामने बार बार एक्सप्रेसवे पर फंसे बेबस लोग और भूख-प्यास से बिलखते उन बच्चों की तस्वीर आ रही थी। पुलिसकर्मियों ने हाईवे के इर्द गिर्द की गलियों में घुस कर दंगाईयों को दबोचना शुरू किया और जो भी हाथ लगा, डंडों और लात घूंसों से उसकी पिटाई करने लगे। मुझे उस पल लगा कि अगर मैं पुलिस में होता तो शायद इससे भी बेरहम तरीके से इन दंगाईयों को सबक सिखाता, फिर चाहे उसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पडती। इन लोगों से इंसानियत से पेश आने की जरूरत नहीं है। पुलिस से बुरी तरह पिटते दंगाई मुझे जरा भी दया के लायक नहीं लगे। इन लोगों को पिटते देख फिर भी थोडा सी राहत महसूस हो सही थी कि करीब 5 घंटे तक रास्ता रोको की वजह से प्रताडित हुए लोगों को कुछ तो इंसाफ मिल रहा है।

...लेकिन दंगाईयों का पिटना ही बेगुनाह जनता के साथ इंसाफ नहीं है। सजा तो आंदोलन के नेतृत्व में शामिल उन लोगों को मिलनी चाहिये, जिन्होने अपने मकसद के लिये महाराष्ट्र बंद का ऐलान किया और दूसरों को तकलीफ पहुंचाई। उन लोगों को दर्द महसूस होना चाहिये जिन्होने आंदोलन का ऐलान तो कर दिया, लेकिन फिर उसपर से नियंत्रण खो बैठे...लेकिन हमारी राजनीतिक व्यवस्था ऐसा नहीं होने देगी। इसी साल 3 जनवरी को भी तो मुंबई दंगाईयों ने हिंसा का नंगा नाच किया था...क्या हुआ उसके बाद? 7 महीने बाद फिर वही। चुनाव नजदीक हैं और ऐसे में गंदी सियासत पूरे परवान पर है। ऐसी घटनाओं अगर फिरसे हों, बार बार हों तो ताज्जुब की बात नहीं होगी।

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