पीपली लाईव: तुझको मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं.....
अबसे 10 साल पहले यानी साल 2000 में शाहरूख खान अभिनित एक फिल्म आई थी “फिर भी दिल है हिंदुस्तानी”। उस वक्त मैं टीवी पत्रकारिता में नया नया था। फिल्म में टीवी पत्रकारों को जोकरों की तरह दिखाया गया था। ये दिखाया गया था कि कैसे एक कथित आतंकी की फांसी को लेकर न्यूज चैनलों में काम करने वाले पागल हो गये थे। हर कोई अपनी तरह से उस फांसी को भुनाना चाहता था। मुझे फिल्म देखकर बडा बुरा लगा। सब बकवास लग रहा था। मेरा मानना था कि इस फिल्म के जरिये टीवी पत्रकारों की गलत और खराब तस्वीर पेश करने की कोशिश की गई है...लेकिन अगस्त 2004 में मैं गलत साबित हुआ। कोलकाता में हत्या और बलात्कार के आरोपी धनंजय चटर्जी को दी जाने वाली फांसी भारत में प्राईवेट न्यूज चैनलों का दौर शुरू होने के बाद पहली फांसीं थी। टीवी चैनलों ने ठीक वैसा ही बर्ताव किया जैसा कि उस फिल्म में दिखाया गया था। फांसी से जुडी हर चीज को बुरी तरह से निचोडा गया। यहां तक कि ये भी दिखाया गया कि फांसी का फंदा कैसे बनता है और किसी को फांसी पर कैसे लटकाते हैं। इसका असर धनंजय के फांसी पर लटकाय़े जाने के कई दिनों बाद तक देखने मिला..कई बच्चे फांसीं फांसी खेलते खेलते मारे गये...हमेशा कि तरह प्रिंट मीडिया ने भी न्यूज चैनलों की जमकर धुनाई की। पीपली लाईव भी हमारी मीडिया की वही कडवी हकीकत पेश कर रही है।
मेरे कई टीवी पत्रकार दोस्तों के गले ये फिल्म नहीं उतर रही।मैने पिछले हफ्ते ही ये फिल्म देखी और एक टीवी पत्रकार के तौर पर मुझे ये फिल्म बिलकुल नहीं चुभी..ये चुभी उन लोगों को होगी जो इस फिल्म में दिखाये गये प्रसंगों को हकीकत में जीते हैं, वैसा व्यवहार करते हैं, वैसा सोचते हैं। मैं इस व्यवसाय में रहकर भी खुदको इनके बीच का नहीं मानता। सिस्टम में रहकर सिस्टम बदलने की कोशिश रही है मेरी। मुझे याद है साल 2001 में जब “आज तक” दूरदर्शन पर दिखाये जाने वाले आधे घंटे के प्रोग्राम से एक न्यूज चैनल में तब्दील हुआ था उस वक्त टीवी रिपोर्टरों की शान ही अलग थी। आम तौर पर लोग उन्हें सम्मान की नजर से देखते थे। खबरें भी वैसीं चलतीं थीं जो कि सिस्टम को हिला कर रख देतीं और आम आदमी को लगता कि टीवी पत्रकार ही उनके सबसे बडे शुभचिंतक हैं....अब वैसा नहीं है। ट्रेनों में, हवाई अड्डे पर, चौराहों पर अगर गलती से भी न्यूज चैनलो का विषय निकलता है तो लोग निंदा करने लगते है.. “ये सब मीडिया वाले ड्रामा करते हैं”। “सब टीआरपी का खेल है बाबू”। राजनेताओं के बाद देश की सबसे ज्यादा धिक्कारी जाने वाली जमात बनती जा रही है टीवी पत्रकारों की। लोग अब भी न्यूज चैनल देखते हैं लेकिन उन्हें गंभीरता से नहीं लेते। जनता जिन चैनलों को एक वक्त में भ्रष्ट सत्ता के खिलाफ एक मजबूत हथियार के तौर पर देखती थी, उन्हीं चैनलों ने अपनी औकात मनोरंजन के माध्यम के तौर पर समेट ली है। पीपली लाईव यही हकीकत दिखाती है।
कई सज्जन मेरा विरोध ये कहकर कर सकते हैं कि इस फिल्म ने मीडिया का सिर्फ नकारात्मक पक्ष दिखाया है। मीडिया ने कई अच्छे काम भी किये हैं जैसे कई नेताओं के भ्रष्टाचार की पोल खोली है, कई अपराधियों को पकडवाया है, कई जन आंदोलनों को जन्म दिया है और उन्हें मजबूत बनाया है, कई बडे बाप के मनचले बेटे सलाखों के पीछे इसी मीडिया की सक्रीयता की वजह से गये हैं, क्या ये सब मीडिया की उपलब्धियां नहीं? उपलब्धियां हैं, बिलकुल हैं। मीडिया के समाज में इसी रोल को देखते हुए इसे अलग अहमियत दी गई है, स्वतंत्रताएं दी गईं हैं जिसका कि मीडिया के लोग भरपूर इस्तेमाल करते हैं...लेकिन एक अच्छा काम करने की एवज में आपको 10 बुरे काम करने की छूट किसने दे दी?
दरअसल पीपली लाईव में मीडिया के जिस रूप को दिखाया गया है वो रूप मीडिया पर सबसे ज्यादा हावी 2-3 साल पहले था। राखी सावंत, बटुकनाथ, फिल्मस्टारों और क्रिकेटरों का रोमांस, भूत-प्रेत, मियां-बीवी के झगडे, देह व्यापार के अलग अलग पहलुओं और मनोरंजक सामग्री को खबर की तरह पेश किया जाता था। इस तरह की खबरें ही प्रमुख होतीं थीं और उन्हीं को चैनलों पर सबसे ज्यादा जगह मिलती थी। नौबत तो ये आ गई थी कि कई बेचारे पत्रकार जो बडे जोश और समाज में सकारात्मक बदलाव का जज्बा लिये इस पेशे से जुडे थे वे खुद को ठगे हुए और फंसे हुए पा रहे थे। कुछ न्यूज चैनलों के अहम पदों पर आसीन लोगों को इस जज्बे और सोच से मतलब नहीं था। उन्हें तो बस टीआरपी की “पापडी चाट” चाहिये थी। अब धीरे धीरे ये दौर गुजर रहा है...लेकिन जो नुकसान मीडिया को पिछले चंद सालों में पहुंचा है उसकी क्षतिपूर्ति में वक्त लगेगा। अगर मीडिया ने अपनी ये छवि नहीं बदली तो कोई शंका नहीं कि आनेवाले वक्त में न्यूज चैनलों के खिलाफ जनआंदोलन शुरू हो जायेगा और कोई टीवी पत्रकारों से सीधे मुंह बात नहीं करेगा।
मैं चाहता हूं कि पीपली लाईव जैसी फिल्में मीडियावालों को आईना दिखाने के लिये हर 2-4 साल में आनी चाहिये। मीडिया के लोग सबकी पोल खोलने का दावा करते हैं अगर कोई ये काम मीडिया के साथ कर रहा है तो क्या गलत है। हम अब भी सुधर जायें तो अच्छा है। वैसे मेरे एक टीवी पत्रकार दोस्त ने कहा कि इस तरह की फिल्मों से तो हम टीवी पत्रकारों की इमेज खराब हो रही है। मैने कहा- “छोडिये जनाब। अंग्रेजी में एक कहावत है Public memory is short lived जब ये जनता 5 साल तक राजनेताओं के हाथों लुटती पिटती है और फिर 5 साल बाद उन्ही को वोट देने निकल सकती है तो टीवी पत्रकार का मजाक उडाती ये अदनी सी फिल्म क्या चीज हैं। इसमें तो आमिऱ खान ने खुद एक्टिंग भी नहीं की है।”
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