गवाहों की हिफाजत : अमेरिका से सीखे भारत।
बीते हफ्ते मुंबई की विशेष मकोका अदालत में अंडरवर्लड
की ओर से साल 2011 में करवाये गये एक शूटआउट के सिलसिले में बतौर गवाह पेश हुआ। वैसे
तो बीते 13-14 सालों में दर्जनों बडे अदालती मुकदमें बतौर पत्रकार मैने कवर किये
हैं, लेकिन एक गवाह की हैसीयत से अदालत में पेशी के दौरान अलग ही अनुभव हुए। कठघरे
में बैठे आरोपियों की लाल निगाहें घूर रहीं थीं, बचाव पक्ष के वकील मेरी ओर देखकर आपस में खुसपुसाते थे फिर आरोपियों
से आंखों के जरिये मेरी ओर इशारा करते थे, गवाही के लिये अपनी बारी आने के इंतजार
में पहले से चल रहे एक अन्य मामले की बोरियत भरी बहस सुननी पडी और इस अनिश्चतता से
भी दो चार होना पडा कि मेरी गवाही क्या इसी सुनवाई में ही पूरी हो जायेगी या फिर
2-3 दिन और बर्बाद होंगे? गवाही से पहले सरकारी वकील से चर्चा हुई जो
महाराष्ट्र सरकार की ओर से बनाई गई उस कमिटी के सदस्य हैं जो ये सुझायेगी कि राज्य
में गिरता हुआ Conviction
Rate कैसे सुधारा जाये (Conviction का मतलब पुलिस की ओर से पकडे गये आरोपी
का अदालत में दोषी करार दिया जाना।) महाराष्ट्र का conviction rate फिलहाल
7.8 फीसदी ही है। बाकी सारे मामलों में पुलिस केस हार जाती है और आरोपी छूट जाते हैं।
सरकारी वकील महोदय से चर्चा में ये निष्कर्ष निकला कि
ज्यादातर मामले पुलिस इसलिये हार जाती है क्योंकि अदालत में गवाह अपने बयान से मुकर
जाते हैं। खासकर संगठित अपराध गिरोहों से जुडे मामलों में ऐसा ज्यादा होता है। ऐसा
इसलिये क्योकि संगठित गिरोह अपने साथियों को सजा से बचाने के लिये साम, दाम, दंड,
भेद हर मुमकिन कोशिश करते हैं। गिरोह की एक इकाई तो सिर्फ गवाहों को “संभालने” के लिये ही पूरी तरह से काम
करती है। अमेरिका में संगठित गिरोहों की इस रणनीति का तोड सालों पहले 1971 में
निकाल लिया गया था जिसके साकारात्मक नतीजे रहे हैं। अमेरिका में United States Marshall Service
(USMS) नाम का एक सुरक्षा
संगठन बनाया गया है, जिसकी जिम्मेदारी पूरी तरह से आपराधिक मामलों के गवाहों की
हिफाजत और न्यायिक अफसरों की सुरक्षा से जुडी होती है। साल 2011 में अपनी अमेरीका
यात्रा के वक्त मैने इस संगठन के कामकाज के तरीके का काफी विस्तार से अध्ययन
किया।ये एजेंसी Witness
Security Program (WSP) नाम की एक योजना भी चलाता है
जिसकी जिम्मेदारी होती है कि किसी बडे मामले के अहम गवाह को परिवार समेत देश में
किसी अन्य जगह पर नई पहचान के साथ बसाया जाये। ये एजेंसी उस गवाह को नया नाम देती
है, उसके नये कागजात बनवाये जाते हैं, उसके लिये नया ठिकाना खोजा जाता है और वहां
उसके रोजगार का इंतजाम किया जाता है। गवाह को आर्थिक मदद भी की जाती है और बीमार
होने पर उसका इलाज भी सरकारी खर्च से होता है। गवाह के नये ठिकाने के बारे में
जानकारी USMS के
चुनिंदा अफसरों को ही होती है। एक अफसर खास तौर पर उस गवाह के लिये नियुक्त किया
जाता है जो वक्त वक्त पर गवाह से मिलकर उसकी खैरियत जानता रहता है। USMS की
तरह ही अमेरिका के कई राज्यों ने भी अपने अपने संगठन गवाहों की हिफाजत के लिये बना
रखे हैं।
भारत में भी Witness Protection Program पर
अक्सर चर्चा हो चुकी है, लेकिन कभी गंभीरता से इसपर काम नहीं किया गया। जो एकमात्र
मामला मुझे याद आता है वो है साल 2003 के मुंबई में हुए दोहरे बम धमाकों का। 25
अगस्त 2003 को मुंबई के मुंबादेवी मंदिर और गेटवे औफ इंडिया के बाहर 2 बम धमाके
हुए थे, जिनमें करीब 60 लोग मारे गये। मुंबादेवी मंदिर के बाहर जिस टैक्सी में बम
फटा उसमें टैक्सी ड्राईवर भी मारा गया था, लेकिन गेटवे औफ इंडिया के बाहर जिस
टैक्सी में बम रखा गया था उसका ड्राईवर जयशंकर दुबे (बदला हुआ नाम) खुशनसीबी से बम
फटते वक्त टैक्सी से दूर था। जयशंकर दुबे मुंबई पुलिस के लिये सबसे अहम गवाह साबित
हुआ। उसी की दी हुई जानकारी पर काम करते हुए पुलिस आतंकवादियों तक पहुंची। धमाके
वाले दिन के बाद से ही पुलिस ने जयशंकर दुबे को किसी गुप्त ठिकाने पर छुपा दिया था
और 3 साल बाद अदालत में गवाही वाले दिन वो सीधे कठघरे में गवाही देते हुए नजर आया।
दुबे की गवाही के आधार पर विशेष पोटा अदालत ने मामले के 3 आरोपियों को मौत की सजा
सुनाई। गवाही के बाद भी पुलिस ने उसका ठिकाना गुप्त रखा और आज तक किसी को नहीं पता
कि जयशंकर दुबे अब कहां है और क्या करता है। सूत्र बताते हैं कि पुलिस की ओर से
उसे आर्थिक मदद भी दी गई।
जयशंकर दुबे भारत में एक कामियाब
Witness Protection Program
की अकेली मिसाल है। इस योजना को औपचारिक तौर पर शुरू किये जाने
की जरूरत है ताकि गुनहगारों का ये आत्मविश्वास खत्म हो सके कि गवाहों को डरा धमका
कर वे बाहर आ सकते हैं और कानून उनका कुछ नहीं बिगाड सकता।
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