विश्वास, अंधविश्वास और पुलिस।
इस
खबर को देखकर हंसी भी आई और दुख भी हुआ कि महाराष्ट्र पुलिस के एक आला अधिकारी ने
नरेंद्र दाभोलकर की हत्या की गुत्थी सुलझाने के लिये तंत्र, मंत्र का सहारा लिया,
एक तांत्रिक पर भरोसा किया। जो आदमी जिंदगीभर अंधविश्वास के खिलाफ लडा और शायद इसी
वजह से मारा गया, उसकी हत्या की जांच ही अंधविश्वास के हवाले हो इससे ज्यादा अपमान
और उसका क्या हो सकता है। सुनने में तो ये किसी भद्दे मजाक की तरह ही लगता है।
बहरहाल, इस खबर ने मुझे प्रेरित किया लिखने के लिये पुलिस के विश्वास और
अंधविश्वास पर। बीते 15 सालों की क्राईम रिपोर्टिंग के दौरान इस बारे में जो कुछ
भी देखा...सुना...पेश है...
बीजेपी
के मौजूदा सांसद और मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर डॉ.सत्यपाल सिंह के मोबाइल फोन
पर अगर आप कॉ़ल करेंगे तो कॉलर ट्यून में आपको गायत्री मंत्र सुनाई देगा। पुलिसिया
नौकरी के दौरान धर्म के प्रति उनका झुकाव छुपा नहीं था। जिस दौरान वे पुलिस
कमिश्नर थे तब एक परिचित महिला पत्रकार ने ट्वीट किया – “एक पुलिस कमिश्नर का अपनी कॉलर ट्यून
के रूप में गायत्री मंत्र रखना शोभा नहीं देता। ये गलत है”। ट्वीटर पर ही मेरी उनसे
छोटी सी बहस हो गई। मैने कहा कि हर पुलिस अधिकारी को भारत के नागरिक के तौर पर
अपना धर्म मानने की आजादी है। वो कौनसी कॉलर ट्यून रखे इस बारे में पुलिस मैन्युअल
में कुछ नहीं कहा गया है। फोन का कॉलर ट्यून रखना निजी विषय है। आपत्ति तब हो सकती
है जब सत्यपाल सिंह अपना काम छोड दफ्तर में बैठकर दिनरात गायत्री मंत्र का पाठ
करते और कहते कि मंत्र के प्रभाव से मुंबई में सब ठीक रहेगा, कोई अपराध नहीं होगा।
ऐतराज तब भी होता जब वे अपने मातहत कर्मचारियों को भी गायत्री मंत्र कॉलर ट्यून
रखने के लिये दबाव डालते।
मुंबई
के लगभग किसी भी पुलिस थाने में चले जाईये। सीनियर इंस्पेक्टर और दूसरे अफसरों के
कमरे में आपको हिंदू देवी देवताओं की तस्वीर लटकी दिखेंगीं। तमाम तरह के दबावों के
बीच काम करने वाले पुलिसवालों को अगर इन तस्वीरों को देखकर आत्मबल मिलता है, सुकून
मिलता है तो मुझे उसमें कुछ गलत नजर नहीं आता। इन तस्वीरों से मुंबई पुलिस की
सेकुलर छवि को नुकसान पहुंचता मुझे नहीं दिखता। साल 2013 में मुंबई पुलिस के एक
रिटायर्ड एसीपी जो कि गैर हिंदू मजहब को मानने वाले हैं ने पुलिस थानों में इन
तस्वीरों के लगाये जाने पर ऐतराज जताया और मुंबई पुलिस कमिश्नर को शिकायत करते हुए
खत लिख दिया। एसीपी साहब ने कहा कि पुलिस थानों में हिंदू देवी देवताओं की
तस्वीरें देखकर उनके समुदाय के लोग असहज महसूस करते हैं, असुरक्षित महसूस करते
हैं। ऐसे में अप्रैल 2013 में इन्ही सत्यपाल सिंह को एक सर्कुलर निकाल कर सभी
थानों को हिदायत देनी पडी कि पुलिस परिसर से सभी तरह के धार्मिक प्रतीक हटाये
जायें। शिवसेना-बीजेपी ने कमिश्नर के इस फरमान का विरोध किया था और कहा कि
अंग्रेजों के जमाने में भी पुलिसकर्मियों पर ऐसी बंदिश नहीं लगाई गई थी।
अगर
1992-93 के मुंबई दंगों के अपवाद को छोड दिया जाये तो अग्रेजों के जमाने से ही
मुंबई पुलिस की छवि आमतौर पर सेकुलर ही रही है। अग्रेजों के वक्त से ही मुंबई में
एक प्रथा भी चली आ रही है जिसे देखने पर मुंबई पुलिस की आस्था का भी पता चलता है
और सांप्रदायिक सदभाव का भी। मुंबई के माहिम में मखदूम शाह बाबा की दरगाह है। हर
साल शाह बाबा के उर्स पर सबसे पहली चादर मुंबई पुलिस की ओर से चढाई जाती है। उर्स
का पहला जुलूस भी माहिम पुलिस थाने में तैनात पुलिसकर्मी ही निकालते हैं। बडे ही
धूम धाम के साथ ये जुलूस निकाला जाता है। थाने के सभी कर्मचारी नाचते गाते दरगाह
तक पहुंचते हैं। उनमें कुछ वर्दी में होते हैं, कुछ सादे कपडों में। जुलूस में
शरीक ज्यादतर पुलिसकर्मी हिंदू होते हैं। ये जुलूस आला पुलिस अफसरों की सहमति से
आयोजित किया जाता है और कई बार डीसीपी रैंक के अधिकारी खुद भी सिर पर संदल रखकर
दरगाह का रूख करते दिखते हैं। बताया जाता है पुलिसकर्मियों के बीच सैकडों सालों से
ये मान्यता स्थापित हो गई है कि अगर किसी केस की गुत्थी नहीं सुलझ रही तो मखदूम
शाह बाबा से प्रार्थना करने पर सुलझ जाती है। पुलिसकर्मियों की इस श्रद्धा को
देखते हुए माहिम के बाबा “पुलिस वालों के बाबा” के तौर पर भी जाने जाते हैं।
मैं
2 ऐसे पुलिस अधिकारियों को जानता हूं जो साईंबाबा की पालकी में शामिल होकर मुंबई
से शिर्डी तक पैदल यात्रा करते हैं। 242 किलोमीटर का ये पैदल सफर वे 10 दिनों में
पूरा करते हैं और इसके लिये उन्हें छुट्टी लेनी पडती है। एक तो पुलिसकर्मियों को
आसानी से छुट्टी मिलती नहीं, मिलती है तो उसके कभी भी रद्द होने का खतरा बना रहता
है। छुट्टी का वक्त ज्यादातर पुलिकर्मी पारिवारिक कामों को निपटाने के लिये
निकालते हैं। ऐसे में 10 दिन की छुट्टी आस्था के लिये समर्पित कर देना
पुलिसकर्मियों के नजरिये से कोई छोटी बात नहीं।
मुंबई
में जब 10 दिनों का गणेशोत्सव खत्म हो जाता है तब ग्यारवें या बारहवें दिन गणपति
की वे गणपति प्रतिमाएं सागर तटों पर विसर्जन के लिये निकलतीं हैं जिनकी
प्रतिष्ठापना पुलिस कॉ़लनियों या पुलिसवालों के मोहल्लों में की गईं हों। कारण ये
है कि बाकी 10 दिन पुलिसकर्मी उत्सव के बंदोबस्त में व्यस्त रहते हैं। दसवें दिन
यानी कि अनंत चतुर्दशी को उनका काम सबसे ज्यादा होता है जब ज्यादातर बडी गणपति
प्रतिमाओं के विसर्जन के साथ उत्सव खत्म होता है। ऐसे में ग्यारहवें या बारहवें
दिन ही उन्हें छुट्टी मिलती है और फिर वे अपनी बस्ती के गणपति विसर्जित करने
निकलते हैं।
न्यायिक
प्रक्रिया के दौरान भी पुलिसकर्मियों की आस्था प्रदर्शित होती है। आम गवाहों की
तरह ही कठघरे में खडे होने पर गवाही से पहले पुलिसकर्मियों को भी शपथ लेनी होती है
– भगवान की कसम खाकर कहता हूं
जो भी कहूंगा सच कहूंगा।
अब
तक ऐसा कोई वाकया याद नहीं आ रहा जिसमें किसी पुलिसकर्मी ने कहा हो कि मैं नास्तिक
हूं इसलिये शपथ नहीं लूंगा। किसी ने ये कहकर भी शपथ लेने से इंकार नहीं किया कि
पुलिस की नौकरी ही मेरा धर्म है।
खैर
ये तो थी आस्था की मिसालें। अंधविश्वास के भी कई किस्से सुनने मिलते हैं जैसे एक
पुलिसकर्मी का बेटा जो कि मेरा मित्र है हाल ही में बता रहा था कि मुंबई में कुछेक
ऐसे पुलिस थाने हैं जहां हत्या या हादसे में मौत जैसे मामले ज्यादा होते हैं वहां
हर अमावस्या को गुपचुप बकरे की बलि दी जाती है ताकि थाने के कार्यक्षेत्र में इस
तरह की घटनाएं कम हो सकें। ये बात कितनी सही है ये मैने पता नहीं किया...लेकिन एक
बात जो मुझे कई पुलिसकर्मियों से पता चली वो ये कि हर साल श्रावण शुरू होने के
पहले “गटारी” के मौके पर कई पुलिस थाने “बकरा पार्टी” जरूर मनाते हैं। इसके बाद श्रावण
खत्म होने तक शराब और मांसाहार सब बंद।
धर्म
मानव सभ्यता की सबसे बेहतरीन संकल्पना भी है और सबसे खतरनाक और दुरूपयोग की जाने
वाली भी। आस्था और अंधविश्वास के बीच की लकीर बहुत ही बारीक है और कई बार पढे-लिखे
और दिमागदार लोग भी इस बारीकी को परख नहीं पाते फिर चाहे ये लोग वर्दी में हो,
कुर्ते-पायेजामें में या जींस-टी शर्ट में।
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