...जब गांधी अंग्रेजों के प्रति वफादारी को फर्ज मानते थे !

वो किताब जिसे जस्टिस काटजू को पढना चाहिये
जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने एक ब्लॉग लिखा है, जिसमें महात्मा गांधी को उन्होने अंग्रेजों का एजेंट साबित करने का प्रयास किया। काटजू के मुताबिक गांधी अपनी गतिविधियों में हिंदुत्व से जुडी बातें करते थे, जैसे रामभजन का गाया जाना, गोरक्षा की हिमायत, ब्रह्मचर्य का समर्थन वगैरह जिससे कि अंग्रेजों की डिवाईट एंड रूल की नीति को फायदा पहुंचता था। मेरा ये ब्लॉग काटजू के ब्लॉग का जवाब तो नहीं है, लेकिन उनके ब्लॉग ने मुझे ये बताने के लिये प्रेरित किया है कि गांधी ने कभी अंग्रेजों के प्रति अपनी वफादारी को छुपाया नहीं। उम्र के चालीसवें दशक में पहुंचने तक वे अंग्रेजी साम्राज्य के हिमायती थे, उसके शुभचिंतक थे। इस बात का जिक्र गांधी ने खुद अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में कम से कम 3 मौकों पर किया है।

अपनी पहली अफ्रीका यात्रा के बारे में बताते वक्त गांधी ने लिखा शुद्ध राजनिष्ठा जितना मैने अपने में अनुभव की है, उतनी शायद ही दूसरे में देखी हो। मैं देख सकता हूं कि इस राजनिष्ठा के मूल सत्य पर मेरा स्वाभाविक प्रेम था। राजनिष्ठा अथवा दूसरी किसी वस्तु का स्वांग मुझसे कभी भरा ही न जा सका। नेटाल में जब मैं किसी सभा में जाता, तो वहां गॉड सेव द किंग गीत अवश्य गाया जाता था। मैने अनुभव किया कि मुझे भी उसे अवश्य गाना चाहिये। ब्रिटिश राजनीति में दोष तो मैं तब भी देखता था, फिर भी कुल मिलाकर मुझे वो नीति अच्छी लगती थी। उस समय मैं मानता था कि ब्रिटिश शासन और शासकों का रूख कुल मिलाकर जनता का पोषण करने वाला है। (पन्ना 149)

गांधी ने आगे लिखा है इस राजनिष्ठा को अपनी पूरी जिंदगी मैने कभी भुनाया नहीं। इससे व्यकितगत लाभ उठाने का मैने कभी विचार तक नहीं किया। राजभकित को ऋण समझकर मैने सदा ही उसे चुकाया है। (पन्ना 149)

गांधी ने अपनी अफ्रीका यात्रा के दौरान बोअर युद्ध में भाग लिया था और अंग्रेजों का साथ दिया। उन्होने अफ्रीका में रह रहे भारतियों को एकजुट करके जंग में घायल होने वाले सैनिकों के इलाज और देखभाल करने का निश्चय लिया। गांधी ने इस युद्ध में शामिल होने के अपने फैसले के समर्थन में लिखा ब्रिटिश राज्य के प्रति मेरी वफादारी मुझे उस युद्ध में शामिल होने के लिये जबरदस्ती घसीट ले गई। मैने अनुभव किया कि जब मैं ब्रिटिश प्रजाजन के नाते अधिकार मांग रहा हूं, तो उसी नाते ब्रिटिश राज्य की रक्षा में हाथ बंटाना भी मेरा धर्म है। उस समय मेरी यही राय थी कि हिंदुस्तान की संपूर्ण उन्नति ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर रहकर हो सकती है। (पन्ना 185)

अंग्रेजों के प्रति अपनी वफादारी के बारे में गांधी ने तीसरी बार जिक्र किया प्रथम विश्वयुद्ध के बारे में बताते हुए। जब जंग की शुरूवात हुई उस वक्त गांधी इंग्लैंड पहुंचे थे, जहां उनकी गोखले से मुलाकात होनी थी, लेकिन गोखले पेरिस में अटक गये और गांधी को कई दिन इंग्लैंड में बिताने पडे। इस दौरान उन्हें लगा कि भारतियों को जंग में अंग्रेजों का साथ देना चाहिये। इसके लिये उन्होने वहां रहने वाले हिंदुस्तानियों की एक सभा बुलाई और अपने विचार रखे। गांधी ने लिखा यदि हम अंग्रेजों की ओर से और उनकी सहायता से अपनी हालत सुधारना चाहते हैं तो उनके संकट के समय उनकी सहायता करके हमें अपनी हालत सुधारनी चाहिये। उनकी शासन पध्दति दोषपूर्ण होते हुए भी मुझे उस समय उतनी असहनीय नहीं मालूम होती थी जितनी आज मालूम होती है... (पन्ना 303 और 304)

महात्मा गांधी के अंग्रेजी साम्राज्य समर्थक विचार लंबे वक्त तक उनपर हावी थे और इसका खुलासा वे अपनी आत्मकथा के अलावा दूसरी पुस्तकों और लेखों में खुद कर चुके हैं। अगर गांधी के साहित्य को संपूर्णता से देखा जाये तो ये जानकार दुख होता है कि कोई उनके विचारों को गलत संदर्भों में पेश करके उन्हें अंग्रेजों का एजेंट कह रहा है। 

(इस ब्लॉग में महात्मा गांधी की आत्मकथा के जिन अंशों को लिया गया है वे नवजीवन ट्रस्ट की ओर से 1994 में प्रकाशित आत्मकथा के हिंदी संस्करण से है।) 

Comments

Anonymous said…
शायद काटजू जी मीडिया में सुर्खियां बटोरने के लिये गांधी को एजेंट के तौर पर पेश कर रहे हैं...आपके लेख से स्पष्ट होता है कि गांधी जी ने ब्रिटिश राज्य को भी पसंद किया था जिसे अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया। फिर काटजू को उन्हें एजेंट जैसे शब्दो का इस्तेमाल करना उचित नही लगता .

Popular posts from this blog

Memoir: A cop like Maria!

Bombay Number 3. (Memoirs of a Mumbai Boy)

हिंदू आतंकवाद - नांदेड धमाके से मिले थे संकेत