अंग्रेज चले गये, लेकिन लाल पगडी कायम है !!!


एक दो...एक दो...लाल पगडी फैंक दो ! ” मेरी नानी बतातीं हैं कि जब वो छोटी थीं तो स्कूल में पढनेवाली बाकी बच्चियों के साथ मिलकर ये नारा उस वक्त लगांतीं थीं जब अंग्रेज पुलिस के सिपाही घोडे पर सवार होकर गांव में गश्त के लिये दाखिल होते थे। इस नारे के जरिये अंग्रेजों के खिलाफ विरोध जताया जाता था और अंग्रेजी पुलिस की नौकरी कर रहे भारतियों से अपील की जाती थी कि वे अपनी नौकरी छोड दें। उस वक्त पुलिस यूनिफॉर्म की लाल पगडी अंग्रेजी हूकूमत की पहचान थी और स्वतंत्रता आंदोलन शुरू होने के बाद लोगों में नफरत का प्रतीक भी बनीं। अंग्रेज चले गये और उनके बाद पुलिस का पहनावा भी बदला। अंग्रेजों की लाल पगडी तो हट गई, लेकिन मुंबई में उस जमाने जैसी पगडी अब भी पहनी जाती है और एक व्यवसाय विशेष के लोगों की पहचान का ये हिस्सा है।

बाबू शेख आपको मुंबई के सीएसटी रेल स्टेशन के बाहर लाल पगडी पहने घूमता दिख जायेगा। पसीने से तर अपनी शर्ट पर करीब 40 साल की उम्र के बाबू शेख ने कंधे से एक छोटा सा बैग लटका रखा होगा, जिसमें आपको कापुस भरी दिखाई देगी। वो किसी से कुछ कहता नहीं और न तो हाथ में वो कोई तख्ती लेकर घूमता है, फिर भी लोगों को पता है कि उसका व्यवसाय क्या है और वो किस तरह की सेवा देता है। उसकी लाल पगडी ग्राहकों को उस तक लाने के लिये काफी है। बाबू शेख का काम है लोगों के कान साफ करना या कान से मैल निकालना जिसे उत्तरभारत के कुछ ग्रामीण इलाकों में खूंट भी कहते हैं। जो शख्स आपके बाल काटता है उसे हज्जाम या नाई कहते हैं, जो जूते पॉलिश करता है उसे मोची कहते हैं, जो खाना बनाता है उसे बावर्ची कहते हैं, लेकिन बाबू शेख जैसे कान साफ करने वालों का कोई व्यावसायिक नाम नहीं है। कोई इन्हें कानवाला कहता है, कोई मैलवाला तो कोई लालपगडी। कुछ लोग मजाक में कानखजूर कह कर भी बुलाते हैं जो इन्हें बिलकुल पसंद नहीं।


बाबू शेख दक्षिण मुंबई के सातरास्ता इलाके की झुग्गियों में अपनी पत्नी और 2 बच्चों के परिवार के साथ रहता है। वो करीब 15 साल की उम्र में कर्नाटक के रायचूर इलाके से मुंबई आया और यहीं बस गया। इस पेशे से जुडे लगभग सभी लोग या तो कर्नाटक के रायचूर से हैं या फिर आंध्रप्रदेश के अदवानी से। कान साफ करना इनका पुश्तैनी पेशा है। पीढी दर पीढी लोग ये काम सीखते हैं और पेशे को आगे बढाते हैं। कान साफ करने की कोई औपचारिक ट्रेनिंग नहीं होती। जो शख्स 15-20 साल तक का अनुभव हासिल कर लेता है वो नये बच्चों को सिखाने वाला गुरू बन जाता है। बाबू शेख ने स्कूली पढाई नहीं की है और न ही उसकी तरह पेशे में शामिल बाकी लोगों ने, लेकिन बाबू शेख अपने बच्चों को स्कूल भेजता है।

सुबह 7 बजे के करीब बाबू शेख अपने काम के लिये निकल पडता है। उसका कार्यक्षेत्र दक्षिण मुंबई के सीएसटी, मेट्रो, फ्लोरा फाउंटेन, कोलाबा, मसजिद बंदर जैसे इलाके हैं। बिरादरी के कई लोग दादर, परेल, लालबाग और उपनगरों में भी घूमते हैं। ग्राहक का कान साफ करने के लिये हाईड्रोजन पेरॉक्साईड (Hydrogen Peroxide), नारियल तेल, कापुस और चिमटे का इस्तेमाल किया जाता है। करीब 5 मिनट की सेवा के लिये बाबू शेख 20 से 30 रूपये का मेहनताना लेता है। एक दिन में कम से कम 200 रूपये तक की कमाई हो जाती है और दिन अच्छा रहा है तो कभी कभी 500 रूपये तक मिल जाते हैं। कई बार ग्राहक खुश होकर टिप भी देते हैं। कई लोग मोबाईल नंबर लेकर घर या दफ्तर में भी कान साफ करवाने बुलाते हैं जिससे कमाई ज्यादा हो जाती है। गेटवे औफ इंडिया वगैरह देखने आये विदेशी पर्यटक भी अक्सर बाबू शेख के ग्राहक बन जाते हैं।

कान साफ करने के लिये किसी खास जगह की जरूरत नहीं पडती। सडक के किनारे, बस स्टॉप पर बैठकर, कहीं भी झटपट ये काम हो जाता है। यही वजह है कि बाबू शेख को न तो किसी पुलिसवाले को या किसी महानगरपालिका के कर्मचारी को हफ्ते की रक यानी रिश्वत नहीं देनी पडती। शेख की छोटी सी दुकान जो कि कंधे पर लटके बैग में ही समा जाती है, इसके साथ ही चलती है। शाम 7 बजे के बाद बाबू शेख अपना काम बंद कर देता है क्योंकि सूर्यास्त के बाद कान के भीतर देखने में तकलीफ होती है और हादसा होने का डर रहता है।


हर व्यवसाय में अच्छे और बुरे लोग होते हैं। बाबू शेख इस बात से दुखी है कि कुछ लालपगडीवाले ग्रहकों को कान की बीमारी का झूठा डर बताकर उनसे इलाज के नाम पर ज्यादा पैसा ऐंठ लेते हैं। चंद बुरे लोगों की वजह से सभी बदनाम होते हैं। मुंबई में लालपगडी वाले अब कम भी हो गये हैं। अबसे 15 साल पहले तक इनकी संख्या 500 से ज्यादा हुआ करती थी, लेकिन आज ये सिर्फ 200 तक सिमट कर रह गये हैं। बाबू शेख के मुताबिक नई पीढी को इस काम में दिलचस्पी नहीं है। शेख का कहना है कि उसके बच्चे तो किसी को ये बताते हुए तक शर्माते हैं कि उनका बाप कान साफ करने का काम करता है। वैसे कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में अब दूसरे रोजगार के विकल्प भी काफी हो गये हैं इसलिये लोग ये काम चुनना नहीं चाहते। बहरहाल, बाबू शेख लाल पगडी पहन कर गर्व महसूस करता है, लेकिन लाल पगडी से इतने पैसे नहीं दिला पाती कि वो मुंबई में एक ठीकठाक पक्का घर खरीद सके। इससे से अपने परिवार का भरणपोषण करने के लिये पैसे तो मिल जाते हैं लेकिन इस वक्त से चिंता अपने सिर की छत बचाने की है। बीएमसी ने उसकी झुग्गी बस्ती को तोडक कार्रवाई का नोटिस भेजा है। इन दिनों वो यही सोच रहा है कि घर छिन जाने पर वो अपने परिवार को कहां ले जायेगा?

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