यादों की विक्टोरिया...


घोडे मुंबई की पहचान से दो तरह से जुडे थे। एक महालक्ष्मी रेसकोर्स में होने वाली घोडों की दौड की वजह से जिनमें करोडों का सट्टा लगता है और दूसरा मुंबई में चलनेवाली विक्टोरिया की वजह से। महालक्ष्मी रेसकोर्स में घोडे अब भी दौडते हैं, लेकिन विक्टोरिया का दौर खत्म हो चुका है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने पशू क्रूरता विरोधी आंदोलकों की दलीलों के आधार पर विक्टोरिया को बैन कर दिया है और सालभर के भीतर मुंबई शहर से विक्टोरिया पूरी तरह से गायब हो जायेंगीं। वैसे मुंबई में विक्टोरिया का अंत इस अदालती आदेश के काफी पहले हो चुका था। जो विक्टोरिया शहर की नब्ज का हिस्सा थीं, वो अबसे 2 दशक पहले ही सडकों पर से गायब हो चुकीं थीं। इन दिनों आप नरीमन पॉइंट और गेटवे औफ इंडिया पर जो चमकती दमकती घोडागाडियां देखते हैं, वे सिर्फ मनोरंजन के लिये हैं, पर्यटकों को लुभाने के लिये हैं।

असली विक्टोरिया मुंबई में यातायात का एक अहम माध्यम थी, खासकर पुरानी मुंबई के इलाकों में ठीक उसी तरह जैसे टैक्सी, ऑटो, बस वगैरह हैं। जैसे आज ऑटोरिक्शा सिर्फ मुंबई के उपनगरों में ही नजर आते हैं, माहिम और सायन से दक्षिण मुंबई की तरफ उनका आना मना है, उसी तरह से विक्टोरिया भी ज्यादातर सिर्फ दक्षिण मुंबई में ही नजर आतीं थीं, उपनगरों में नहीं। 1880 के आसपास विक्टोरिया को मुंबई में अंग्रेजों ने शुरू किया था और जल्द ही ये शहर की पहचान में शामिल हो गईं। मुझे बचपन की याद है कि 90 के दशक की शुरूवात तक दक्षिण मुंबई के कालबादेवी रोड से सटे तांबा-कांटा नाम के इलाके में एक विक्टोरिया स्टैंड हुआ करता था। शाम को यहां विक्टोरिया की कतारें लगतीं थीं। इनके ज्यादातर मुसाफिर गुजराती और मारवाडी होते थे जो अपना कारोबार खत्म करने के बाद विक्टोरिया के जरिये मरीन लाईन या सीएसटी स्टेशन जाते। रोजाना आने-जाने वाले मुसाफिरों के ग्रुप होते थे और किराया सभी मुसाफिर मिलकर चुकाते थे।कालबादेवी रोड पर टाक...टिक...टाक..टिक...की आवाज करती हुई विक्टोरिया और उसपर ताश के पत्ते खेलते बैठे लोग शाम के वक्त आम नजारा था। तांबा-कांटा का विक्टोरिया स्टैंड शाम को गुलजार हो जाता था। कारोबारियों के अलावा मुंबादेवी मंदिर में दर्शन के लिये आने वाले श्रद्धालुओं के लिये भी विक्टोरिया एक सुविधाजनक विकल्प थी। घोडों की लीद और हरी घास की गंध/दुर्गंध पूरे इलाके में फैली रहती। जिन जिन इलाकों में विक्टोरिया का ज्यादा आना जाना होता, वहां भी सडक पर लीद से अक्सर गंदगी हो जाती थी। यही वजह थी कि उन दिनों में मुंबई महानगरपालिका हर सुबह टैंकर से पानी मंगवा कर सडकों को धुलवाती थी। शुरूवात में ट्रामें भी घोडे ही खींचते थे और उनसे भी गंदगी होती थी, इसलिये सडकों को धुलवाने का इंतजाम किया गया था। करीब 20 साल पहले तांबा-कांटा का विक्टोरिया स्टैंड धीरे धीरे खत्म हो गया। विक्टोरिया की सवारी करने वाले घटते गये और उनके साथ ही विक्टोरिया भी। इसके पीछे एक कारण 1992-93 के दंगों को भी माना जा रहा है। जैसे कि पहले मैने बताया कि विक्टोरिया के ज्यादातर मुसाफिर दक्षिण मुंबई के गुजराती और मारवाडी समुदाय के लोग होते थे, लेकिन दंगों के बाद इन समुदाय के ज्यादातर लोग मुंबई छोड कर मीरा रोड, भायंदर, वसई, विरार जैसे ठिकानों पर जा बसे। इसके अलावा वाहनों की तादाद सडकों पर इतनी बढ गई कि विक्टोरिया जैसे धीमे रफ्तार वाले वाहन का इस्तेमाल व्यावहारिक नहीं रहा खासकर दक्षिण मुंबई की पतली, संकरी सडकों पर इनका चलना मुश्किल हो गया। अपने आखिरी दिनों में मुंबई में बमुश्किल 100 विक्टोरिया ही बचीं थीं। (इनमें वे शामिल नहीं है जिनका मनोरंजन के लिये इस्तेमाल होता है)


आपने पुरानी हिंदी फिल्मों में विक्टोरिया को देखा होगा। घोडागाडी को देश के दूसरे हिस्सों में तांगा, इक्का वगैरह कहा जाता है, मुंबई में इन्हें विक्टोरिया कहते हैं। मुंबई की विक्टोरिया देश के दूसरे शहरों में चलने वाली घोडागाडियों से बिलकुल अलग दिखती थी। विक्टोरिया में कुल 4 पहिये होते थे, जिनमें आगे के दो पहिये छोटे रहते और पीछे के 2 बडे। कोचवान समेत कुल 4 लोग विक्टोरिया पर बैठ सकते थे। कोचवान की सीट आगे की तरफ अलग रहती थी और थोडी उंची उठी रहती थी। बगल में लंबा सा चाबुक स्टैंड पर लगा रहता था। कोचवान को गजकरण कहा जाता था। उन्हें गजकरण क्यों कहा जाता था, ये पता नहीं क्योंकि गज का अर्थ हाथी होता है जबकि इन लोगों का काम घोडे से पडता था। गजकरण की पोशाक खाकी रंग की शर्ट और पैंट होती थी। रोशनी के लिये विक्टोरिया के दोनो ओर लैंप लगे रहते, जिनमें तेल के दिये से रोशनी की जाती। विक्टोरिया के पीछे एक मोटी रॉड लगी रहती, जिसपर अक्सर बच्चे लटक कर झूलते थे। विक्टोरिया में अरबी नस्ल के लाल, सफेद और काले घोडे लगाये जाते जो कि काफी लंबे और तगडे होते थे।

विक्टोरिया में लगने वाले घोडों के तबेले मुंबई के बॉम्बे सेंट्रल, ग्रांट रोड और कर्नाक बंदर जैसे इलाकों में होते थे। इनके तबेले मुंबई देह व्यापार के लिये बदनाम इलाके प्ले हाऊस और फाकलैंड रोड के बीचोंबीच भी थे। मुंबई में विक्टोरिया खत्म होने के पीछे एक बडी वजह इन तबेलों का खत्म होना भी है। रियल इस्टेट बाजार में तेजी आने के साथ ही मुंबई में जमीन की कीमतें भी आसमान छूने लगीं। ऐसे में तबेलों की जगह ऊंची उंची इमारतों ने ले ली। इमारतों के लिये जगह हासिल करने की खातिर क्या क्रूर तरीके अपनाये गये इसका एक किस्सा मेरे दिवंगत नाना ने एक बार मुझे सुनाया था। बॉम्बे सेंट्रल के बेलासिस रोड पर घोडों का सबसे बडा तबेला था जो कि कई एकड में फैला था। तबेले की इस जमीन पर उस जमाने के स्मगलर युसुफ पटेल की नजर थी जो कि वहां इमारत बनवाना चाहता था। तबेला खाली करवाने के लिये उसने कई पैंतरे आजमाये, लेकिन जब वो तबेला हासिल नहीं कर सका तो दिसंबर 1979 की एक रात उसने तबेले में चारों तरफ से आग लगा दी। तबेला पूरी तरह से जल गया और उसी के साथ तबेले में मौजूद सैकडों बेजुबान घोडे भी जिंदा जला दिये गये। वो दिन मुंबई के इतिहास के काले दिनों में से एक था। युसुफ पटेल को तबेले की जमीन तो मिल गई, लेकिन उस घटना के कई महीनों बाद तक मुंबई की सडकों पर विक्टोरिया नजर नहीं आई।

 मुंबई में चलने वाली असली विक्टोरिया तो हालातों के चलते खुद ब खुद ही खत्म हो गईं, लेकिन विक्टोरिया के नाम पर जो घोडागाडियां मुंबई में चल रहीं हैं, उनपर पाबंदी को मैं जायज ही मानता हूं। मनोरंजन के नाम पर इनके साथ जो सलूक किया जा रहा था वो क्रूर था और उनपर लगाम लगनी ही चाहिये थी।

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