चेन्नै: त्रासदी दर त्रासदी...वही सवाल, वही ख्याल।
कहते हैं कि एक ही चीज बार बार देखने-सुनने से
उसके प्रति संवेदना खत्म हो जाती है। 17 साल की
उम्र में पत्रकारिता शुरू की थी और 37 साल की उम्र तक पहुंचते पहुंचते न जानें
कितनी और किस किस तरह की मौतें देखीं। कुदरती और मनुष्यजनित हादसों में होने वाली
मौतें, पुलिस और गैंगस्टरों की गोलियों से होने वाली मौतें, दहशतगर्दों की ओर से
किये गये बम धमाकों में इंसानी शरीर के चिथडे उडा देने वाली मौतें...मुझे कभी कभी
डर लगता है कि मेरी हालत सरकारी अस्ताल में पोस्टमार्टम के लिये रोजाना लाशों की
चीरफाड करने वाले संवदेनहीन डॉक्टर की जैसी न हो जाये...लेकिन शायद अभी वो नौबत
नहीं आई है। संवेदना बची हुई है...मन सोचता है...दुखी होता है...और लिखने को मजबूर
करता है।
ये ब्लॉग मैं चेन्नै से बाढ की त्रासदी कवर करके
वापस लौटते वक्त लिख रहा हूं। इस बार भी वही सवाल और वही ख्याल मेरे जेहन में हलचल
मचा रहे हैं जो बीते डेढ दशक में दुनिया की अनेक बडी कुदरती आपदाओं के कवरेज के
दौरान मुझे घेरे हुए थे। 2004 में हिंद महासागर में सुनामी लहरों की हैवानियत,
2005 में मुंबई को डुबा देने वाली बारिश, 2011 में जापान को हिला देनेवाली सुनामी
लहरों का कहर, 2013 उत्तराखंड के केदारनाथ में हुई जलप्रलय। भले ही ये तमाम
त्रासदियां दुनिया के अलग अलग हिस्सों में कवर की हों, लेकिन इन सबके कवरेज के
दौरान मैने कई समानताएं पाईं। कुदरत के कहर की ऊपरी तस्वीरें हर जगह एक जैसी ही
नजर आतीं थीं। बर्बाद हो चुकीं बस्तियां, अपनों को खो चुके रोते-बिलखते लोग, लापता
लोगों को ढूंढते बदहवास रिश्तेदार, राहत सामग्री के लिये तरसते लोग...इन तस्वीरों
के अलावा एक और बात भी सभी त्रासदियों में समान है। वो है इन त्रासदियों के लिये
खुद इंसान का जिम्मेदार होना। इस बात को समझने के लिये ज्यादा गहरे शोध की जरूरत
नहीं है। आपदाओं के ठिकानों पर पहुंचकर पहली नजर में ही बात समझ में आ जाती है।
उत्तराखंड में मंदाकिनी नदी को पाटा गया और उसकी चौडाई कम की गई, मुंबई में मीठी
नदीं की भी गहराई और चौडाई अतिक्रमण की वजह से कम हुई, चैन्नै में हुई तबाही के
लिये अध्यार नदीं को जिम्मेदार माना जा रहा है जिसे इंसानी लालच ने 50 फीसदी से भी
ज्यादा समेट दिया और जहां से किसी वक्त नदीं की धारा बहती थी वहां अब रईसों की
बस्तियां बना दी गईं। जापान में भी समुद्र को पाटा गया और मुंबई में भी। प्रकृति
के हमले का शिकार बने इन ठिकानों पर की गईं ये बडी भूलें थीं और जब इनका मेल अन्य
कारणों के साथ हुआ तो विस्फोट तो होना ही था।
इन त्रादियों को कवर करते वक्त मैने जो कुछ भी
देखा और इनसे जुडी हुई जो भी सामग्री मैने पढी है उससे मैं चिंतित हूं। ये भयानक
सच स्वीकार करने के लिये तैयार हो जाईये कि आने वाले वक्त में हमें मुंबई, चैन्नै,
उत्तराखंड, जापान जैसी या इनसे भी कई गुना ज्यादा भयंकर तबाहियां देखनीं होंगीं और
ये “आने वाला वक्त” ज्यादा दूर नहीं है। अगले 10-15 सालो के
भीतर ही देखिये कि क्या क्या होता है। “ग्लोबल वार्मिंग”
इन दो शब्दों को हरगिज हल्के में नहीं लिया जा सकता। हमने बीती सदी में ही अपनी
पृथ्वी को इस हद तक नुकसान पहुंचाया है कि अब कुदरत के पलटवार को रोकना नामुमकिन
हो गया है...सिर्फ उससे बचने के तरीके सोच सकते हैं और ज्यादा नुकसान न होने देने
के प्रयास कर सकते हैं। हाल ही में पेरिस में जो सम्मेलन हुआ उसमें दुनियाभर के
देशों ने इस बात को समझा जरूर, लेकिन सभी देशों को अपने स्वार्थ के साथ समझौता
करके जो गंभीर कदम उठाये जाने चाहिये थे, वो नहीं हुआ।
चलते चलते चेन्नै में इंडियन एयरफोर्स के एक
पायलट के वो शब्द यहां मैं काबिल ए जिक्र समझता हूं जो आसमान से शहर की तबाही
देखकर हतप्रभ था और जिसे मैने खुद को कहते सुना – “If you screw up the
nature..the nature knows how to screw you up back…”
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