सलमान खान: इंसाफ की रफ्तार!
सलमान
खान को हिट एंड रन केस में बॉम्बे हाई कोर्ट से बरी हुए आज हफ्ताभर हो गया है। इस
दौरान मेरी कई वकीलों से बातचीत हुई जो कि इस केस से जुडे हुए नहीं थे, लेकिन
न्यायिक प्रकिया पर नजर रखे हुए थे। ऐसे तमाम वकील मुझे हतप्रभ और गुस्से से भरे
हुए नजर आये।...नहीं..नहीं..ये गुस्सा सलमान खान को इस तरह से छोड दिये जाने को
लेकर नहीं था, न ही सलमान को बरी करने जाने वाले जज के खिलाफ था। ये गुस्सा था
न्यायिक प्रक्रिया की उस तेज रफ्तार को लेकर जो सिर्फ सलमान के मामले में ही नजर
आई।
अगर
किसी आरोपी को निचली अदालत दोषी करार देकर सजा सुनाती है और 6 महीने में ऊपरी
अदालत यानी कि हाई कोर्ट उसकी अपील पर फैसला सुना देती है तो ये अभियुक्त के
नजरिये से एक अच्छी बात है। अभियुक्त अपने भविष्य को लेकर सस्पेंस में नहीं रहता।
उसे ज्यादा कोर्ट के चक्कर नहीं लगाने पडते, तारीख दर तारीख इंतजार नहीं करना
होता, वकीलों को ज्यादा फीस नहीं देनी होती। सलमान हिट एंड रन केस में बरी हो गये
ये तो उनके लिये एक अच्छी खबर थी ही, लेकिन उससे ज्यादा अहम बात ये थी कि वो उस
तकलीफदेह न्यायिक प्रकिया से भी बच गये जो कि आम लोगों को अदालत में झेलनी पडती
है। मई 2015 में सेशंस कोर्ट सलमान को शराब पीकर गाडी चलाने और एक शख्स की मौत का
जिम्मेदार होने के आरोप में 5 साल की जेल के सजा सुनाता है और करीब 7 महीने बाद ही
दिसंबर में उसकी अपील पर फैसला भी आ जाता है। सेशंस कोर्ट की ओर से दोषी ठहराये
जाने के बाद सलमान ने एक रात भी सलाखों के पीछे नहीं गुजारी। सलमान ने जब हाई
कोर्ट में अपील दायर की तो उन्हें जमानत देते वक्त जज अभय ठिपसे ने आदेश दिया था
कि उनकी अपील पर जल्द सुनवाई हो। इसके पीछे मकसद ये था कि ये न समझा जाये कि सलमान
खान जमानत लेकर लंबे वक्त तक आजाद रह सकेंगे और कोर्ट में मामला चलता रहेगा।
सलमान
खुशनसीब थे कि उनके मामले का निपटारा 7 महीनें में ही हो गया...लेकिन बाकी लोगों
के साथ क्या होता है ?
एक
वकील दोस्त के मुताबिक सलमान जैसे या सलमान से कम गंभीर मामलों में भी अगर कोई
आरोपी दोषी ठहराया जाता है तो उसकी अपील पर फैसला आते आते कम से कम 4-5 साल लग ही
जाते हैं और कई मामलों में तो 7 से 8 साल तक। सोचिये...कहां 7 महीने और कहां 7 से
8 साल !!!
अदालत में तारीख पर तारीख पडतीं जातीं हैं। जो बडे वकील होते हैं वे तो तारीखों पर
अपने जूनियर को खडा कर देते हैं, लेकिन आम वकीलों को तारीख के वक्त अदालत में खुद
मौजूद रहना होता है और अपने मामले का नंबर आने का इंतजार करना पडता है और फिर मिल
जाती है एक और तारीख! वकीलों
को फीस तो देनी ही है। हर तारीख पर मुवक्कील का पैसा भी खर्च होता जाता है। कई
मामलों में तो ऐसा भी हुआ है कि किसी आरोप में निचली अदालत ने आरोपी को दोषी करार
देकर सजा सुना दी, उसे जेल भेज दिया। सालों बाद बॉम्बे हाई कोर्ट ने उसकी अपील पर
फैसला सुनाते हुए उसे बरी कर दिया, लेकिन निचली अदालत के फैसले और हाई कोर्ट के
फैसले के बीच का वक्त इतना लंबा था कि आरोपी ने जेल में उस सजा की अवधि पूरी कर ली
जिसके लिये बाद उसे हाई कोर्ट ने बरी कर दिया। ऐसे मामले अंग्रेजी की उस कहावत का
सटीक उदाहरण हैं- Justice
delayed is justice denied. कई ऐसे भी मामले हैं जिनमें निचली
अदालत की ओर से दोषी ठहराये जाने के बाद हाईकोर्ट ने आरोपी को जमानत दे दी हो,
लेकिन इस जमानत को हासिल करने तक उसे काफी वक्त जेल में गुजारना पडा, जबकि सलमान
के मामले में जमानत पर सुनवाई तुरंत हो गई थी और आपको याद होगा कि उस दिन अदालती
लिपिक का दफ्तर भी नियत वक्त से काफी देर से बंद हुआ था।
ये बात सच है कि मुंबई समेत देशभर की अदालतें अपनी क्षमता
से ज्यादा मामलों से दबीं हुईं हैं। अकेले बॉम्बे हाईकोर्ट में इस वक्त पौने 4 लाख
मामले लंबित हैं। महाराष्ट्र की निचली अदालतों में 30 लाख के करीब मामले लंबित हैं।
लॉ कमीशन ने सिफारिश की थी हर 10 लाख की आबादी पर 200 जज होने चाहिये, लेकिन हकीकत
में सिर्फ 17 ही हैं। हमारी न्यायिक व्यवस्था ऑवरलॉडेड है और उससे नागरिक त्रस्त
हैं, लेकिन ऐसे हालात में भी सलमाऩ जैसे लोग इस व्यवस्था से प्रभावित नहीं होते।
बॉम्बे हाईकोर्ट में वकालत कर रहे जिन वकीलों से मेरी बात हुई उनका मानना है कि जो
मापदंड सलमाऩ खान के मामले के निपटारे के लिये अपनाया गया वही मापदंड सभी मामलों
में अपनाया जाना चाहिये। फिलहाल सभी यही चर्चा कर रहे हैं कि सलमाऩ के मामले में
इंसाफ ने जो रफ्तार दिखाई उसने देश को क्या संदेश दिया ?
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