न्यूज चैनलों की बदलती भाषा और विषय चयन !
(हाल ही में मुंबई के मशहूर के.सी.कॉलेज की ओर से आयोजित किये गये एक परिसंवाद में मीडिया के बदलते स्वरूप पर बोलने का मौका मिला। पेश है परिसंवाद में व्यक्त किये गये विचार-
मीडिया की भाषा और विषय चयन पर बोलने से पहले मैं एक मूलभूत बात स्पष्ट करना चाहूंगा कि
भारत में जब दूरदर्शन और आकाशवाणी का एकाधिकार था तब देश के नागरिकों को संबोधित
किया जाता था,
उनके मद्देनजर सामग्री तय की जाती थी। नागरिक इस शब्द पर गौर
कीजिये। नागरिक की जगह आज उपभोक्ता ने ले ली है। निजी न्यूज चैनलों की सामग्री
बाजार के नियमों पर आधारित होती है। क्या दिखाना है, कितना
दिखाना है, कैसे दिखाना है ये सबकुछ एक बाजार को ध्यान में
रखकर तय किया जाता है। पत्रकारिता को बाजारीय समीकरणों से प्रभावित होना चाहिये या
नही, ये बहस का अलग विषय है...लेकिन वस्तुस्थिति यही है कि
चाहे समाचार चैनल हों, खेल के चैनल हों या मनोरंजन चैनल हों
सभी पर बाजार का प्रभाव है।
अब
पहले बात करते हैं चैनलों के विषय चयन की। जैसा कि मैने अभी कहा कि कौनसे विषय़ पर
सामग्री दिखानी है ये बाजार तय करता है तो आप पूछेंगे कि टेलिविजन चैनलों का बाजार
क्या है। 1990 के दशक के मध्य में जब निजी चैनलों का दौर शुरू हुआ तब केबल टीवी की
पहुंच सिर्फ शहरी इलाकों तक थी। इसलिये तमाम न्यूज चैनलों का बाजार था शहरी इलाकों
के , मध्यम वर्गीच परिवारों के युवा दर्शक जिनकी उम्र 18 साल से लेकर 35-40 साल
के बीच हो। जो लोग इस बाजार का हिस्सा थे वे क्या देखना पसंद करते हैं, उनकी क्या सोच है, उनके क्या सपने हैं, उनका रहनसहन कैसा है, उनकी क्या चिंताएं हैं इसपर
न्यूज चैनल अपनी सामग्री तय करते थे। बीते 2 सालों में हिंदी समाचार चैनलों के
बाजार में विस्तार हुआ है। केबल टीवी और डीटीएच की पहुंच अब भारत के गांव गांव तक
हो गई है। इस वजह से अब ग्रामीण इलाकों को भी समाचार चैनलों के बाजार में शामिल कर
लिया गया है। आपने देखा होगा कि हिदी न्यूज चैनल आज तक ने एक कार्यक्रम शुरू किया
गांव आज तक। ये इसी बदले हुए बाजार का असर है। ग्रामीण इलाके को बाजार में शामिल
किये जाने से पहले समाचार चैनलों पर किसानों की चर्चा अक्सर तब ही होती थी,
जब किसानों की आत्महत्या पर राजनेता बयानबाजी करते थे या फिर जब
सब्जी और अनाज के दाम बढ जाते थे...लेकिन अब ग्रामीण इलाके का कवरेज धीरे धीरे
व्यापक हो रहा है, बढ रहा है।
90
के दशक के मध्य से लेकर अब तक न्यूज चैनलों का विषय चयन भी बडा दिलचस्प रहा है। 90
के दशक में जब निजी न्यूज चैनलों का दौर शुरू हुआ तब देश में काफी राजनीतिक उठापटक
चल रही थी। खूब नाटकीयता थी, खूब कहानियां निकलतीं थीं। 13 दिन और तेरह
महीने में सरकारें गिरतीं थीं। चंद्रास्वामी, टीएन सेशन,
अटलबिहारीवाजपेयी, एल.के अडवानी, प्रमोद महाजन जैसे नाम टीवी पर छाये रहते थे। केंद्र और कई राज्यों में
बार बार मध्यावधि चुनाव होते थे। इस वजह से समाचार चैनलों का पूरा फोकस राजनीतिक
खबरों पर रहता था। ये दौर इस दशक की शुरूवात तक चला...लेकिन इन 6-7 सालों में इतनी
राजनीतिक कवरेज हो गई कि लोग उनसे ऊबने लगे। राजनीति से अलग अब कुछ और दिखाने की
जरूरत होने लगी।
साल
2001 से राजनीति की जगह अपराध लेने लग गया...हालांकि आम धारणा ये बन गई कि दोनो के
बीच अब ज्यादा फर्क नहीं रह गया। समाचार चैनलों पर अपराध से जुडी खबरों के हावी
होने के पीछे 2 कारण थे। पहला कि संगठित अपराध उस वक्त अपने चरम पर थे। मुंबई में
गैंगवार हो रहा था। दाऊद इब्राहिम, छोटा राजन, अरूण
गवली, अश्विन नाईक, अबू सलेम के गिरोह
न केवल एक दूसरे के शूटरों को मार रहे थे, बल्कि मुंबई के
बडे फिल्मकारों और कारोबारियों भी अपना निशाना बना रहे थे। छोटा राजन के लोग मुंबई
बमकांड के आरोपियों की हत्या कर रहे थे, तो वहीं छोटा शकील
के लोग मुंबई दंगों के आरोपी शिवसैनिकों पर गोलियां बरसा रहे थे। शायद ही कोई ऐसा
दिन होता था जब मुंबई में गोली नहीं चलती थी। उसी दौरान छोटा शकील की फिल्म
फाईनेंस करने के आरोप में भारत के सबसे बडे हीरा कारोबारी भरत शाह की गिरफ्तारी
हुई, जिसने बॉलीवुड और अंडरवर्लड के रिश्तों पर सामग्री
तैयार करने के लिये न्यूज चैनलों को खूब मौका दिया। उसी दौरान महाराष्ट्र का
बहुचर्चित तेलगी घोटाला भी सामने आया जिसमें कई बडे पुलिस अधिकारी जेल गये।
हालांकि, ये आपराधिक गतिविधियां मुंबई से जुडी थीं लेकिन
इन्हे राष्ट्रीय समाचार चैनलों में खूब जगह मिलती थी।
गिरोहों
की ओर से किये जा रहे संगठित अपराध के अलावा आतंकी हमलों का सिलसिला भी शुरू हो
गया। संसद पर हमला,
अक्षरधाम पर हमला, कोलकाता के अमेरिकन सेंटर
पर हमला, मुंबई के घाटकोपर इलाके में एक बस में बम विस्फोट,
गेटवे औफ इंडिया और मुंबादेवी मंदिर के बाहर हुए बम धमाके उस दौरान
राष्ट्रीय न्यूज चैनलों में छाये रहे।
आतंकवाद
और अंडरवर्लड की खबरों में ड्रामा था, बदला था, साजिश
थी, सस्पेंस था, एक्शन था। उनमें हीरो भी
थे और विलेन भी जिनकी समाचार चैनलों को हमेशा कहानियां सुनाने के लिये तलाश रहती
है। यही वजह थी कि समाचार चैनलों ने उन्हें खूब जगह दी और ये खबरें देखीं भी भरपूर
गईं। कई समाचार चैनलों ने अपराध के लिये विशेष शो शुरू किये जैसे स्टार न्यूज ने
रेड अलर्ट, सनसनी और शूटआउट जैसे कार्यक्रम शुरू किये तो
वहीं आज तक ने जुर्म और वारदात जैसे कार्यक्रम शुरू किये। इंडिया टीवी ने एसीपी
अर्जुन नाम का क्राईम शो शुरू किया।
करीब
5-6 साल तक हिंदी समाचार चैनलों पर अपराध की खबरों का दौर चला। आज भी हिंदी चैनलों
पर क्राईम शो चलते हैं और अपराध की खबरों को प्रमुखता मिलती है, लेकिन
वैसी नहीं जैसी उस दौर में मिलती थी। उसके बाद आया वो दौर जिसे मैं हिंदी न्यूज
चैनलों का सबसे घृणित दौर मानता हूं। ये वो दौर था जब हिंदी न्यूज चैनलों की
विश्वसनीयता, उनकी परिपक्वता और यहां तक कि उनकी आवश्यकता पर
भी सवाल उठने लगे।
साल
2005-06 के आसपास गंभीर खबरें हिंदी न्यूज चैनलों से गायब होने लगीं। उनकी जगह ले
ली अग्रेजी की टैबलॉयड स्टाईल की पत्रकारिता ने। अंधविश्वास, भूत-प्रेत, नाग-नागिन, उडनतश्तरी, सैक्स
रैकेट, फैशन शो, फिल्मी गपशप जैसी
खबरें पूरी तरह से हिंदी चैनलों पर हावी हो गईं। आपको याद होगा कि एक दिन किसी
गांव के एक आदमी ने खुद के बारे में भविष्यवाणी कर दी थी कि आज शाम को मैं मरने
वाला हूं और उसके बाद तमाम समाचार चैनलों ने उस गांव में सुबह से ही डेरा जमा
लिया। चैनल पर सिर्फ उसी व्यकित से जुडी खबरें चल रहीं थीं और उसके भजन-कीर्तन
करते हुए तस्वीरें बार बार दिखाई जा रहीं थीं। मुझे याद है उस दिन चैनल पर दूसरी
कोई खबर नहीं चली। शाम को जब खुद के बताये वक्त पर वो आदमी नहीं मरा तो चैनलों ने
बताना शुरू किया – ढोंगी की पोल खुली। समाचार चैनलों पर इस
तरह की सामग्री का विरोध भी शुरू हो गया। कहा जाना लगा कि टीवी पत्रकारिता के नाम
पर ये पत्रकारिता के साथ मजाक है। कईयों ने कहा कि समाचार चैनलों को सूचना एवं
प्रसारण मंत्रालय से दिये जाने वाले लाईसेंस रद्द करके उन्हें मनोरंजन की श्रेणी
वाले लाईसेंस दिये जाने चाहिये। मुझे याद है कि जेवियर्स कॉलेज में राजनीतिशास्त्र
पढाने वाली प्रतिभा नेथानी एक समाचार चैनल के दफ्तर उसकी ओर से दिखाई जाने वाली
सामग्री का विरोध करने के लिये मोर्चा लेकर पहुंच गईं और अदालत में जनहित याचिका
दायर करने की भी तैयारी कर रहीं थीं।
खैर
इससे पहले कि हिंदी समाचार चैनलों के खिलाफ कोई जनांदोलन शुरू हो पाता, न्यूज
चैनलों ने अपना फोकस बदलना शुरू कर दिया। टैबलाईड स्टाईल पत्रकारिता से फिर एक बार
उनका रूख गंभीर खबरों की तरफ हुआ। इस बार विषय थे भ्रष्टाचार और सिस्टम की
खामियां। मुंबई में 26 नवंबर 2008 का आतंकी हमला, दिल्ली में
लोकपाल के लिये अन्ना हजारे का अनशन, निर्भयाकांड, टूजी घोटाला, कोयला घोटाला इत्यादि ने समाचार चैनलों
का कवरेज भ्रष्टाचार और प्रशासनिक व्यवस्था से जुडी खबरों की तरफ मोडा। मीडिया के
इस बदले हुए रूख का तत्कालीन विपक्षी पार्टियों ने केंद्र और दिल्ली की राजनीति
में भरपूर फायदा उठाया।
अब
बात करते हैं कि इस वक्त समाचार चैनल किस तरह के विषयों पर फोकस करते हैं। ये सोशल
मीडिया का दौर है। सोशल मीडिया एक तरह से समाचार चैनलों के लिये चुनौती बनकर उभरा
है। 24 घंटे के न्यूज चैनलों की एक उपयोगिता ये भी मानी जाती है कि कोई भी बडी खबर
वो हमें तुरंत बता देते हैं, जिसे चैनल ब्रेकिंग न्यूज के तौर पर पेश करते
हैं...पर अब ये काम सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर होने लगा है। कई बडी खबरें ट्वीटर
और फेसबुक के मार्फत ब्रेक हुईं हैं। इसके अलावा चैनल पर कौनसी सामग्री दिखाई जानी
है इसका एक पैमाना अब ये भी हो गया है कि ट्वीटर पर कौनसा विषय ट्रेंड कर रहा है।
एक बात ये भी गौर करने वाली है कि टीवी स्क्रीन और मोबाइल स्क्रीन एक दूसरे के
पूरक की भी भूमिका निभा रहे हैं। दर्शक टीवी पर कोई खबर देखता है, फिर ट्वीटर या फेसबुक पर अपने विचार व्यक्त करता है। उसी तरह न्यूज चैनल
ये देखते हैं कि ट्वीटर और फेसबुक पर लोग किस विषय में ज्यादा रूचि ले रहे हैं।
इसी बात के मद्देनजर कई न्यूज चैनल अपनी खबरों का हैशटैग तैयार करके दर्शकों को
उन्हें ट्वीट करने के लिये कहते हैं और फिर कई दर्शकों के विचार टीवी स्क्रीन पर
भी दिखाये जाते हैं।
टीवी
एक तस्वीरों और ध्वनि का यानी कि ऑडियो विजुअल माध्यम है। अगर कोई रोचक सीसीटीवी
फुटेज आता है या मोबाईल कैमरे से शूट की हुई कोई तस्वीरें आतीं हैं तो उन्हें भी
समाचार चैनलों पर जगह मिलती। जबसे मोबाईल फोन में कैमरे आने लगें हैं और सीसीटीवी
कैमरों का इस्तेमाल बढा है तबसे इनके आधार पर खबरें भी चैनलों पर खूब दिखाईं जा
रहीं हैं।
समाचार
चैनल के विषय चयन पर और भी काफी कुछ कहा जा सकता है लेकिन हमारे पास समय सीमित है, इसलिये अब
मैं समाचार चैनलों की भाषा पर बात करूंगा।
आज
हिंदी समाचारों की भाषा कैसी है।
आज
हिंदी समाचारों की भाषा सरल है, सनसनीखेज है, आक्रमक है,
आम बोलचाल वाली है और संक्षिप्त है। बीते 2 दशकों में हिंदी न्यूज
चैनलों की भाषा में भी काफी बदलाव हुआ है और ये पूरी मीडिया में हो रहे बदलावों का
एक हिस्सा है।
साल
2000 में आज तक न्यूज चैनल शुरू करने के लिये दिल्ली में हमारी ट्रेनिंग हो रही
थी। आज तक के तत्कालीन संपादक कमर वाहिद नकवी ने उस ट्रेनिंग के दौरान हमें बताया
कि आज तक चैनल में उस भाषा उसका इस्तेमाल होना चाहिये जो हिंदी फिल्मों में
इस्तेमाल होती है। दिलचस्प बात ये है कि उस वक्त और बडी हद तक आज भी हिंदी फिल्मों
में जिस भाषा का इस्तेमाल होता है वो पूरी तरह से हिंदी नहीं होती। उसमें उर्दू या
फिर कहें हिंदुस्तानी का बडा प्रभाव रहता है। तो कैसी है ये भाषा। मिसाल के तौर पर
अदालत से जुडे शब्दों को लीजिये –
इस
भाषा में-
न्यायलय
को अदालत
सश्रम
कारावास को कैदे बामशक्कत
अपराध
को गुनाह
आदेश
को हुक्म
शपथपत्र
को हलफनामा
भारतीय
दंड संहिता को ताजीराते हिंद
धारा
को दफा
अभियुक्त
को मुलजिम
उत्तर
को जवाब
और
हत्या
को खून कहते हैं
अगर
आम बोलचाल के शब्दों की बात करें तो
राजनीति
को सियासत
विशेषज्ञ
को जानकार
राज्य
को सूबा
यात्रा
को सफर
सेना
को फौज
दुर्घटना
को हादसा
उदाहरण
को मिसाल
मार्ग
को राह या रास्ता कहते हैं।
ये
वो भाषा थी जिसका आज तक ने कई सालों तक इस्तेमाल किया और आज भी एक हद तक कर रही
है। समाचार चैनलों में भाषा की शुद्धता से ज्यादा जोर इस बात पर दिया जाता है कि
क्या दर्शक खबर को आसानी से समझ पा रहा है।
एक
मिसाल- अगर मैं ये कहूं कि ऊपरी उपस्कर भंग हो जाने के कारण लोकल ट्रेनें देरी से
चल रहीं
हैं
तो कितने लोग समझ पायेंगे
लेकिन अगर मैं कहूं कि ओवरहेड वायर टूट जाने की वजह से लोकल ट्रेने
देरी से चल रहीं हैं तो सभी समझ लेंगे।
अखबार
तो सिर्फ शिक्षित लोग ही पढ सकते हैं, लेकिन टीवी अनपढ आदमी भी देख सकता
है। इसलिये चैनलों की भाषा वो होती है जो अनपढ या कम पढा लिखा व्यकित भी समझ जाये।
भाषा की शुद्धता को यहां ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता।
मैंने
अंग्रेजी माध्यम से पढाई की है और जब मैं तीसरी कक्षा में था तबसे हिंदी सिखाई
जाने लगी। शिक्षिका ने सुझाव दिया कि हिंदी अच्छी करने के लिये हिंदी अखबार पढो।
घर में नवभारत टाईम्स आता था और मैं उसे रोज पढने लगा। आज कोई माता-पिता या शिक्षक
बच्चे को ये नहीं कह सकता कि हिंदी सीखने के लिये न्यूज चैनल देखो। वैसे अब तो
नवभारत टाईम्स से भी हिंदी गायब हो गई है। हिंदी समाचार चैनलों में हिंदी शुद्ध
नहीं है या तो उनमें अग्रेजी हावी हो गई है या फिर क्षेत्रीय भाषाओं के शब्द। इसके
पीछे एक कारण ये है कि कई समाचार संमूह अपने अलग अलग भाषाई चैनलों के लिये एक ही
बहुभाषी रिपोर्टरों की टीम रख रहे हैं। उदाहरण के तौर पर किसी एक समाचार संस्थान
के हिंदी और मराठी चैनल दोनो हैं तो वो वैसे रिपोर्टर की नियुकित करेगा जो कि दोनो
ही भाषाएं बोल ले...लेकिन कैमरे पर भले ही ये रिपोर्टर अपनी मातृभाषा ठीक बोल लें, लेकिन
दूसरी भाषा में बोलते वक्त वैसा नहीं होता। मसलन अगर किसी मराठी भाषी रिपोर्टर को
अगर हिंदी में खबर देनी है तो वो कह देता है – महानगरपालिका
के बाहर जीजामाता नगर के रहिवासियों ने गोंध़ड किया। रहिवासी और गोंध़ड- मराठी के
शब्द हैं। यहां रहिवासी की जगह निवासी होना चाहिये था और गोंध़ड की जगह हंगामा
होना चाहिये था। इसी तरह से कोई समाचार समूह अपने अंग्रेजी और हिंदी चैनलों के
लिये एक ही रिपोर्टिंग टीम रखते हैं, जिनके कुछ सदस्य कैमरे
पर अच्छी अंग्रजी बोलते हैं, लेकिन टूटी फूटी हिंदी।
वैसे
समाचार चैनलों पर हिंदी और अंग्रेजी का अच्छा मेल हो गया है। ब्रेकिंग न्यूज
अंग्रेजी के इन दो शब्दों का जितना इस्तेमाल अंग्रेजी चैनलों ने किया है, उतना ही
हिंदी चैनलों ने भी। जब कोई बडी खबर आती है तो लाल पट्टी पर खबर भले ही देवनागरी
में लिखी जाये, लेकिन ऊपर रोमन में लिखा देंखेंगे ब्रेकिंग
न्यूज। बडी दुर्घटना के वक्त आप चैनल पर सुनेंगे भीषण एक्सीडैंट।
भाषा
की शुद्धता को अहमियत देने वाले लोग हिंदी चैनलों की भाषा को खिचडी भाषा भी बोल
सकते हैं तो वहीं उदारवादी लोग इसे हिंदी की प्रगतिशीलता भी मान सकते हैं।
एक
और बदलाव बीते एक डेढ दशक में देखने मिला है। पहले समाचार चैनलों की भाषा
मुहावरेदार होती थी,
काव्यात्मक होती थी जो अब नहीं है। फटाफट खबरों या 5 मिनट में पचास
खबरों के इस जमाने में भाषा की सुंदरता पेश करने के अवसर ओझल हो गये हैं।
Comments
Anjana Om kashyap age