नैरॉबी ने 26/11 से कुछ नहीं सीखा, क्या हमने सीखा?
26 नवंबर 2008 के मुंबई में हुए आतंकी हमलों को पूरी दुनिया
ने देखा। आतंकवाद से पीडित तमाम राष्ट्रों ने उन हमलों से सीख ली और भविष्य में
ऐसे हमले अपनी जमीन पर टालने के लिये रणनीतियां भी बनाईं। केन्या भी भारत की तरह ही आतंकवाद से प्रभावित
एक देश है। मुंबई के हमलों के बाद बाकी देशों की तरह केन्या के पास भी मौका था
अपनी सुरक्षा का जायजा लेने का और खामियों को दुरूस्त करने का जो उसने नहीं किया।
भारत में भी उन हमलों के बाद बहुत कुछ हुआ...लेकिन जो नहीं हुआ, ये आलेख उसपर है।
खासकर 26-11 की तर्ज पर नैरोबी में हुए आतंकी हमले के बाद इसका विश्लेषण प्रासंगिक
है।
मुंबई के किसी
शॉपिंग मॉल में दाखिल होने से पहले आपको गेट पर गणवेश पहने निजी सुरक्षाकर्मियों
से दो चार होना पडेगा। पहले वो आपको DFMD
(Door Frame Metal Detector) से
गुजरने के लिये कहेंगे, फिर एक सुरक्षा गार्ड अपने हाथ में लिये दूसरे मेटल
डिटेक्टर को सिर से पैर तक घुमायेगा। एक सुरक्षा गार्ड आपके बैग को खोल कर उसपर एक
नजर डालेगा और इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद आप उस शॉपिंग मॉल में प्रवेश कर
पायेंगे। जब भी मैं मुंबई के किसी मॉल या फिर मशहूर मंदिर में जाता हूं तो गेट पर
इस सुरक्षा जांच को देखकर मिलेजुले भाव आते हैं। इस प्रक्रिया को देखकर गुस्सा भी
आता है, हंसी भी आती है और निराशा भी होती है। दो टूक शब्दों में कहें तो इस तरह
की सुरक्षा जांच किसी काम की नहीं है। इस काम के लिये तैनात किये जाने वाले
सुरक्षाकर्मियों की शक्लों पर कभी गौर कीजिये। इनकी शक्ल पर आपको सिर्फ बोरियत और
अपने काम के प्रति अरूचि ही दिखाई देगी। इंसान की शक्ल में ये रोबोट होते हैं।
मेटल डिटेक्टर छुआकर आपके शरीर की जांच या फिर आपके बैग को देखना सिर्फ एक रस्म
नजर आती है। इन्हें देखकर आपको नहीं लगेगा कि वाकई में इनकी दिलचस्पी कडी सुरक्षा
जांच करके किसी संदिग्ध को आपत्तिजनक सामग्री के साथ पकडना है। कई बार मैं सोचता
हूं कि अगर इन्होने कभी किसी अपराधी या आतंकी को हथियार के साथ पकड भी लिया तो
क्यो करेगे? शॉपिंग मॉल्स में लगाया गये ज्यादातर निजी
सुरक्षागार्ड हथियारों से लैस नहीं हैं। जब तक ये कुछ कर पायेंगे तब तक तो वो शख्स
अपना काम करना शुरू कर चुका होगा। मुंबई के तमाम सार्वजनिक ठिकानों पर सुरक्षा
इंतजामों को देखने के बाद मुझे ये विश्वास हो गया है कि ऐसे इंतजाम सुरक्षा के नाम
पर सिर्फ आंखों में धूल झोंकने का काम कर रहे हैं। साल 2010 में मैने मुंबादेवी
मंदिर में एक स्टिंग ऑपरेशन किया था। उस ऑपरेशन में ये दिखाया गया था कि किस तरह
से मैं मंदिर की सुरक्षा जांच से गुजरने के बावजूद लोहे के फर्जी रिवॉल्वर के साथ
मंदिर में दाखिल हो गया। मैने मंदिर परिसर में बडी देर तक एक काले रंग का बैग भी
रख छोडा, लेकिन उस पर न तो मंदिर के निजी सुरक्षा गार्ड्स की नजर पडी और न ही
ड्यूटी पर तैनात पुलिसवालों की। मंदिर परिसर में सीसीटीवी भी लगे हुए थे।
मैं तमाम सार्वजनिक
ठिकानों पर लगाये गये निजी सुरक्षा गार्ड्स को प्रभावी नहीं मानता हूं। मुझे उनकी
ट्रेनिंग और किसी हथियारबंद से निपटने में उनकी काबिलियत पर भी शक है। शॉपिंग मॉल
के कार पार्क भी सुरक्षित नहीं नजर आते। हालांकि मॉल में घुसते वक्त आईने के जरिये
आपकी कार का निचला हिस्सा देखा जाता है और आपको कार की डिग्गी खोलने के लिये कहा
जाता है, लेकिन मुंबई के किसी भी मॉल के पास ऐसी व्यवस्था नहीं है जिससे इस बात का
पता लगाया जा सके कि कार में कहीं विस्फोटक तो नहीं? पूरी प्रक्रिया मुझे
बेकार नजर आती है और लोगों को सुरक्षित होने का झूठा अहसास दिलाती है। हवाई अड्डा
एकमात्र ऐसी जगह है जहां नजर आता है कि सुरक्षा गंभीरता से ली जाती रही है
(हालांकि, कई लोगों के अनुभव इससे अलग हो सकते है) अगर आप अपने हैंडबैग में शेविंग
रेजर या सिग्रेट लाईटर ले जा रहे हैं तो 99.9 फीसदी आप पकडे जा सकते हैं। मुझे याद
है साल 2010 में जब मैं मलेशिया की राजधानी क्वालालुमपुर से लौट रहा था तब मेरा
कैमरामैन अनजाने में वहां की सुस्त सुरक्षा जांच को पार करते हुए सिग्रेट लाईटर
हवाई जहाज के भीतर तक ले आया। याद की कीजिये 1999 में जिस IC-814 विमान
को हाईजैक किया गया था उसमें हथियारबंद आतंकी काठमांडू से सवार हुए थे, भारत के
किसी हवाई अड्डे से नहीं।
अमेरिका दौरे के
वक्त मैने वहां की कई सरकारी इमारतों, हवाई अड्डों, बडे होटलों, शॉपिंग मॉल्स,
एफबीआई मुख्यालय और संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय की सुरक्षा व्यवस्था देखी।
कहीं पर सुरक्षा को लेकर ढीला रवैया नजर नहीं आया। सुरक्षा के लिये तैनात गार्ड
सिर्फ वहां अपनी मौजूदगी दर्शाने के लिये नहीं खडे दिखे, बल्कि उनसे व्यावासायिकता
झलक रही थी। उन्हें इस बात का अति आत्मविश्वास भी नहीं था कि सिर्फ उनकी मौजूदगी
देखकर बदमाश भाग खडे होंगे। कई लोगों की नजर में अमेरिकियों की ओर से अपनाई जाने
वाली सुरक्षा प्रक्रिया अपमानजनक और गलत हैं, लेकिन मेरा मानना है कि 9-11 के बाद
अमेरिका ने कई सही पाठ पढे हैं।
इंसान अपनी गलतियों
से सीखता है। मुंबई शहर जिसने बीते 10 सालों में 12 आतंकी हमले देखे हैं जिनमें
कुल 500 के करीब लोग मारे गये और 1000 से ज्यादा घायल हुए को अब तक काफी कुछ सीख
लेना चाहिये था। कम से कम 26-11 के हमलों के बाद जो कि स्वतंत्र भारत के इतिहास
में सबसे बडा आतंकी हमला था “हमें” हमारी सुरक्षा जरूरतों के प्रति और ज्यादा
संवेदनशील होने की जरूरत है। “हमें” से मेरा तात्पर्य महज सरकारी एजेंसियों से ही
नहीं बल्कि निजी संस्थानों और आम नागरिकों से भी है। ये अफसोसजनक भी है और चिंताजनक
भी कि हमने अब तक सबक नहीं लिया है। 26-11 जैसे हमलों का खतरा हम पर अब भी वैसा ही
है जैसा पहले था।
ऐसा नहीं है कि
हमारी सुरक्षा एजेंसियां हाथ पर हाथ धरे बैठीं हैं। आये दिन मंदिरों, होटलों,
स्कूलों वगैरह के बाहर होने वाले मॉक ड्रिल्स से पता चलता है कि सुरक्षा एजेंसियां
खराब से खराब हालात से निपटने के लिये तैयारियां कर रहीं है। आप गणोशोत्सव,
स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस वगैरह के पहले सडक पर भारी नाकेबंदी भी पायेंगे।
यहां मेरा सवाल है कि क्या हम अपनी हिफाजत को सिर्फ इन सुरक्षा संगठनों के हाथ ही
छोड दें? हमें इनकी सीमांए पता हैं और साथ ही इनके राजनीतिक आकाओं
का चरित्र भी...ऐसे में इनपर निर्भर रहना कितनी समझदारी होगी? यही
नहीं किसी भी आतंकी हमले के वक्त ये सुरक्षाकर्मी ही हालात से निपटने वाले First Responders होंगे ऐसा नहीं है। इनकी जगह पर आम नागरिक या निजी
सुरक्षा गार्ड भी हो सकते हैं। बदलती दुनिया में सुरक्षा की परिकल्पना बहुआयामी
होनी चाहिये जो कि समाज की सभी इकाईयों को शामिल करे। हर किसी को सुरक्षित रहने की
जिम्मेदारी अपने ऊपर लेनी होगी।
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