मुंबई को क्यों चाहिये सांप्रदायिक सौहार्द की घुट्टी?



मुज्जफरनगर में भडकी सांप्रदायिक हिंसा ने साल 1992-93 में मुंबई में हुए दंगों की यादें फिर ताजा कर दीं। उस दौरान मैं एक स्कूली छात्र था और उस उम्र में मैने जो देखा वो तस्वीरें आज भी जेहन में साफ हैं। मेरी पैदाईश शहर के कुख्यात बंबई नंबर 3 में हुई थी। यहां हिंदू और मुसलमानों की मिलीजुली आबादी है और मेरा घर उस जगह था जहां सडक के एक ओर हिंदुओं के घर हैं और दूसरी ओर मुसलिमों के। वो सडक हिंदू और मुसलिमों दंगाई गुटों के लिये कुरूक्षेत्र बन गई थी। वे खौफनाक पल आज भी रोंगटे खडे कर देते हैं - किस तरह से किसी के पेट में तलवार घुसेड कर अंतडियां बाहर निकाली गईं, कैसे किसी को पेट्रोल से नहलाकर माचिस सुलगा दी गई, कैसे किसी को पकड कर उसके सिर में गोली दागी गई। दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 के दूसरे हफ्ते के अखबारों में छपने वाली लगभग हर खबर इंसानियत को शर्मसार कर देने वाली थी। वे रातें भी किसी कयामत से कम नहीं थीं। कब किसी इमारत को आग लगा दी जायेगी, कब पेट्रोल बम से दंगाई हमला कर देंगे जैसे सवालों ने नींद उडा रखी थी। जिस इंसान ने कभी जिंदगी में मक्खी भी न मारी हो, वो दंगाईयों से बचने के लिये घर में पेट्रोल बम बना रहा था, साईकिल की चैन, हॉकी स्टिक, चॉपर और बडे बडे पत्थरों का ढेर घर पर इक्टठा कर रहा था। कई दिनों तक चलने वाले कर्फयू ने उन लोगों की जिंदगी भी नर्क बना दी थी जो कि दंगे से सीधे तौर पर प्रभावित नहीं हुए थे। जो लोग कुछ दिन पहले ही मां-बाप बनने की खुशी मना रहे थे, उनके पास अब अपने नवजात बच्चे की खातिर दूध नहीं था, कुछ के घर पर राशन खत्म हो गया था और जिनके यहां राशन था उनके पास खाना पकाने के लिये रसोई गैस खत्म हो गई थी। घर पर बीमारी से तडपते बुजुर्ग को अस्पताल न ले जा पाने की मजबूरी थी। कुछ लोग सोच सकते हैं कि इस लेख के जरिये गडे मुर्दे उखाडने का क्या फायदा। किसी भी सांप्रदायिक दंगे में इस तरह की त्रासदी होती ही है...लेकिन मेरा मानना है कि उन दंगों की यादें ताजा रखना जरूरी है। उन दंगों के दौरान जो कुछ भी हुआ उसे मिटाना खतरनाक हो सकता है...खासकर उस पीढी के लिये जिसने उन दंगों को नहीं देखा है, उसका दर्द महसूस नहीं किया है।

जो लोग आज 15 से 25 साल के बीच हैं वे या तो मुंबई दंगों के वक्त बहुत ही छोटे थे या फिर पैदा ही नहीं हुए थे। इन्हें इस बात का अंदाजा नहीं है कि सांप्रदायिक हिंसा की आग क्या क्या लील सकती है, उससे कैसी तबाही मच सकती है। ये उस उम्र के लोग हैं जिन्हें नफरत का जहर फैलाने वाले बडी ही आसानी से अपने झांसे में ले लेते हैं, उनके अपरिपक्व दिमाग और गर्म खून को गलत दिशा की ओर मोडते हैं। याद कीजिये 11 अगस्त 2012 को मुंबई के आजाद मैदान के बाहर हुए दंगे को जिसमें खासकर पुलिस और मीडिया को निशाना बनाया गया था। पकडे गये लगभग सभी दंगाई इसी उम्र के थे। उस तारीख को हुई हिंसा पर तो उसी दिन काबू पा लिया गया लेकिन उस घटना ने मुंबई के लिये खतरे की घंटी जरूर बजा दी है। उसने ये सवाल भी पूछने को मजबूर किया है कि मुंबई में सांप्रादायिक सौहार्द पैदा करने के लिये जो कुछ भी किया जा रहा है क्या वो पर्याप्त है और वाकई में इस दिशा में कुछ किया जा भी रहा है क्या ?

सांप्रादायिक एकता के इरादे से मुंबई में मोहल्ला एकता कमिटी शुरू की गई थी। मोहल्ला कमिटी का ये फार्मूला सुरेश खोपडे नाम के एक पुलिस अधिकारी ने 1993 के मुंबई दंगों के दौरान पास के कस्बे भिवंडी में अपनाया था। भिवंडी का सांप्रादायिक दंगों का काला इतिहास रहा है, लेकिन खोपडे के मुताबिक बाबरी कांड के बाद वहां दंगे इसलिये नहीं भडके क्योंकि मोहल्ला एकता कमिटी सिस्टम को वहां लागू किया गया था। इस सिस्टम के तहत हर ऐसे इलाके में जो सांप्रादियक तौर पर संवेदनशील है, वहां एक कमिटी बनाई जाती है, जिसमें हिंदू और मुसलिम समाज के स्थानीय नेताओं को सदस्य बनाया जाता है और कमिटी का कामकाज स्थानीय पुलिस की देखरेख में होता है। शिवसेना, बीजेपी, मुसलिम लीग, समाजवादी पार्टी जैसी सियासी पार्टी के नेताओं को भी इनका सदस्य बनाया जाता था। कमिटी की जिम्मेदारी होती थी कि ऐसी गतिविधियां आयोजित की जायें जिससे दोनो कौमों के लोगों के बीच आपसी विश्वास बढे और नफरत कम हो। 1992-93 के बाद मुंबई में भी ऐसी तमाम कमिटियां बनाई गईं। दंगों के कई साल बाद तक इनकी मौजूदगी भी नजर आई। गणपति विसर्जन का जुलुस अगर किसी मसजिद के सामने से नमाज के वक्त गुजरता तो कमिटी के लोग गणपति मंडल के सदस्यों का फूल देकर स्वागत करते और उनसे शालीन शब्दों में बैंड बाजा बंद करने की गुजारिश की जाती। कमिटी की ओर से दोनो संप्रदायों और पुलिस के बीच दोस्ताना किक्रेट मैच वगैरह भी आयोजित किये जाते। खैर, ये सब अबसे चंद साल पहले तक की बात थी। अब मोहल्ला कमिटियां सिर्फ नाम की रह गईं हैं। सिर्फ गणपति विसर्जन के वक्त ही उनका अस्तित्व नजर आता है। कई कमिटियों में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग घुस गये हैं जिनका मकसद कमिटी के जरिये पुलिस अधिकारियों के साथ करीबी हासिल करना होता है।


1992-93 में जब मुंबई में दंगे हुए थे तब पूरे देश का माहौल खराब था। बाबरी मसले ने दोनों समुदायों के बीच की खाई को और गहरा कर दिया था। इस वक्त वैसा कुछ नहीं है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हम ये मानकर बैठ जायें कि मुंबई में फिरसे दंगे नहीं होंगे। 11 अगस्त 2012 को आजाद मैदान के बाहर जो कुछ भी हुआ वो एक मिसाल है कि नफरत की चिंगारी कभी भी शोले की शक्ल ले सकती है। सांप्रदायिक हिंसा के बम को चिंगारी लगाने के लिये बहानों की कमी नहीं है। चुनाव नजदीक हैं और चंद राजनेता अपनी कामियाबी सुनिश्चित करने की खातिर किसी भी हद तक जा सकते हैं। आये दिन आतंकियों की ओर से बम धमाके होते रहते हैं। इनके पीछे भी छुपा हुआ मकसद सांप्रदायिक हिंसा पैदा करना ही होता है। 1993 बमकांड के आरोपियों के इकबालनामों को पढेंगे तो पता चलेगा कि धमाके के बाद दाऊद गिरोह ने फिरसे मुंबई में एक सांप्रदायिक दंगे की उम्मीद की थी। वैसे भी खुफिया एजेंसियों की ओर से तो ये अलर्ट आ ही रखा है कि देश के दुश्मन फिरसे सांप्रदायिक दंगे करवाने की फिराक में हैं।


सांप्रदियक दंगों पर किये गये तमाम अध्ययनों से पता चलता है कि कोई भी दंगा किसी एक वारदात से नहीं भडकता बल्कि उसके पीछे एक के बाद एक कई घटनाओं का सिलसिला होता है, आर्थिक कारण होते हैं, सामाजिक कारण होते हैं जिनसे दोनो संप्रदायों के बीच कटुता बढती जाती है। अपने गुस्से का इजहार करने के लिये दोनो संप्रदाय के लोग बस मौका ढूंढ रहे होते हैं और ऐसे में कोई छोटी सी वारदात भी बडे नरसंहार का सिलसिला शुरू कर देती है। मेरी नजर में आज जरूरत है कि मौजूदा पीढी को सांप्रादियक हिंसा के खौफ से वाकिब कराया जाये, उन्हें 1992-93 के बारे में बताया जाये, जिन कारणों से दंगों होते हैं उन्हें रोकने के लिये कोई तकनीक बनाई जाये, फिर चाहे वो मोहल्ला कमिटी सिस्टम को फिरसे दुरूस्त किया जाना हो या फिर उससे बेहतर किसी तरीके का अपनाया जाना। मुंबई के दंगों ने हमारे कई विश्वासों को झूठा साबित किया था जैसे कि मुंबई एक आधुनिक सोच वाला शहर है, मुंबई में हर कोई अपनी रोटी-रोजगार के बारे में ही सोचता है, मुंबई में किसी को किसी से लडने की फुर्सत नहीं वगैरह। हमें वैसा झटका फिरसे न लगे इसकी खातिर मुंबई को फिरसे सांप्रादियक सौहार्द की घुट्टी पिलाने की जरूरत है।

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