शिवसेना की अंतर्कलह : क्योंकि हर आदमी का कोई खास आदमी होता है...
फिर
कोई शिवसेना से अलग हुआ है और फिर वही एक नाम सामने आया है-मिलिंद नार्वेकर।
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे के बाद जिसने भी शिवसेना छोडी उसने
मिलिंद नार्वेकर को जरूर गरियाया। ताजा मामला है शिवसेना के पूर्व सांसद और दबंग
नेता मोहन रावले का। इन्होने भी पार्टी से बाहर होने के पहले मिलिंद नार्वेकर की “करतूतों” का मीडिया के सामने भंडाफोड किया था। आखिर ये मिलिंद नार्वेकर
है कौन जिसने महाराष्ट्र की सबसे ताकतवर सियासी पार्टियों में से एक शिवसेना के भीतर
कोहराम मचा रखा है और जिसके बुरे बर्ताव का हवाला देकर कट्टर शिवसेना नेता भी पार्टी
छोड रहे हैं ?
कहने
को तो मिलिंद नार्वेकर शिवसेना के कार्याध्यक्ष उदध्व ठाकरे का निजी सहायक है,
लेकिन वो पार्टी में बहुत कुछ है। 1996 में उदध्व से जुडा मिलिंद नार्वेकर शिवसेना
की रैलियों में मंच पर भाषण नहीं देता, वो जनसभाएं नहीं लेता, वो चुनाव नहीं लडता,
वो टीवी चैनलों की बहस में हिस्सा नहीं लेता, उसकी तस्वीरें अखबारों में नहीं
छपतीं, वो कोई बयान नहीं जारी करता, वो शिवसेना के हिंसक आंदोलनों में हिस्सा नहीं
लेता और न ही शिवसेना की ओर से शहर में उसके कभी बैनर पोस्टर लगाये गये, फिर वो
इतना ताकतवर कैसे हो गया?
इसे जानने के
लिये राजनीति शास्त्र के उस हिस्से पर नजर डालनी पडेगी जो कॉलेजों में नहीं पढाया
जाता है और पढाया भी जाता है तो शायद इसे REALPOLITIK का लेबल दिया जाता है। राजनीति में हर आदमी का कोई खास आदमी
होता है। नरेंद्र मोदी का खास आदमी अमित शाह है, राहुल गांधी का खास आदमी कनिष्क
सिंह है, सोनिया गांधी के खास अहमद पटेल हैं और उसी तरह उदध्व ठाकरे का खास आदमी
मिलिंद नार्वेकर है। दरअसल, राजनीति के तमाम दिग्गज चेहरे अपने साथ एक ऐसे आदमी को
रखते हैं, जो उनकी खातिर “पंचिंग बैग” या “डस्टबिन” का स्वेच्छा
से काम करे। जो उस राजनेता की ओर से लिये गये कडवे फैसलों को उसके समर्थकों तक
पहुंचाये और राजनेता को मिलने वाली गालियां खुद खाये। राजनेता अगर पार्टी के सदस्यों
को खुश करे तो उसका श्रेय उसे खुद मिले, लेकिन उसके फैसलों से अगर कोई नाराजगी
पैदा हो रही हो तो “बिल इस खास आदमी पर फटे”।
ये
आश्चर्यजनक है कि शिवसेना के मंझे हुए राजनेता मिलिंद नार्वेकर को गालियां देकर
पार्टी छोड रहे हैं, लेकिन वे ये नहीं समझ पाये कि नार्वेकर तो उदध्व ठाकरे का ही
बनाया हुआ है और वो उदध्व से बडा नहीं है। नार्वेकर की सारी ताकत उदध्व से ही आती
है। कुछ सियायी समीक्षकों का कहना है कि मान लीजिये कि कल को नार्वेकर उदध्व ठाकरे
से अलग हो जाये तो क्या उसकी हैसीयत एक नगरसेवक(पार्षद) के तौर पर चुने जाने की भी
है? शिवसेना से अलग होकर क्या
वो 50 लोगों की भी भीड जुटा सकता है? नहीं। मोहन रावले ने आरोप लगाया कि नार्वेकर की वजह से उसे सांसद रहते हुए
उदध्व ठाकरे से आमने-सामने मुलाकात का वक्त पाने के लिये भी 4 साल लग गये...पर
श्रीमान रावलेजी ये तो सोचिये कि आखिर एक ऐसा शख्स जो 1995 तक शाखाप्रमुख भी नहीं
था, उसे शिवसेना के सांसद को एक छोटी सी मीटिंग के लिये 4 साल तक लटकाने का अधिकार
किसने दिया? नार्वेकर जो भी करता है वो
उदध्व ठाकरे की मर्जी से और उसकी जानकारी में करता है। वो ज्यादा से ज्यादा उदध्व
के फैसलों पर अपनी राय रख सकता है, उन्हे बदल नहीं सकता और न तो उनपर अमल किया
जाना रोक सकता है।
अगर
नार्वेकर को देखें तो वो महज अपनी नौकरी कर रहा है। जो उदध्व नार्वेकर को कहते हैं
वो नार्वेकर करता है। चूंकि उदध्व के अप्रिय फैसलों को पार्टी में प्रसारित करने
का काम नार्वेकर ही करता है इसलिये लोग उसे ही विलेन समझ बैठे हैं। ये तो उदध्व का
ही बनाया गया सिस्टम है कि उनसे मिलने के लिये पार्टी नेताओं को नार्वेकर से
संपर्क करना पडेगा। ये अलग बात है कि लोग नार्वेकर को उदध्व का करीबी मानकर उसे
खुश करने की कोशिश में रहते है। जो नारायण राणे नार्वेकर को गालियां देकर शिवसेना
छोड गये वो किसी वक्त में इसी नार्वेकर के अच्छे दोस्त हुआ करते थे। जो लोग
नार्वेकर पर निशाना साध रहे हैं, वे लोग ऐसा करके शिवसेना की दुर्दशा के लिये
अनजाने में उदध्व को उनकी जिम्मेदारी से बचा रहे हैं...आखिर उदध्व ने नार्वेकर को
रखा भी तो इसी काम के लिये ही है।
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